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Opinion: लोकतंत्र में कभी-कभी मंजिल से ज़रूरी यात्राएं हो जाती हैं

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Opinion: लोकतंत्र में कभी-कभी मंजिल से ज़रूरी यात्राएं हो जाती हैं

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पटना. राहुल गांधी देश में एक वृहत्तर विपक्षी मंच बनाने की जुगत में है. इसी क्रम में राहुल उत्तर प्रदेश और बिहार भी आ रहे हैं. इससे पहले उत्तर प्रदेश में अखिलेश-राहुल की जुगलबंदी को भी आजमाया जा चुका है. यात्राएं तो कई हो रही हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कल तक एनडीए में थे, जो खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, 5 जनवरी से अपनी यात्रा निकाल रहे हैं. चंपारण की राजनीतिक उर्वर भूमि पर 1917 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुक्मरानों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की थी. “जन सूराज” का सपना लेकर, चुनावी रननीतिकर प्रशांत किशोर भी तीन महीने से चंपारण में गांव-गांव की पदयात्रा पर हैं.

वैसे भी भारत में चरैवैति-चरैवैति यानि निरंतर चलते रहने की परंपरा रही है. इन दिनों सोशल मीडिया पर “भारत जोड़ो यात्रा” की चर्चा है, जो अपनी यात्रा के जरिये कांग्रेस्स में प्राण फूंकने की कोशिश कर रहे हैं।
काँग्रेस नेता राहुल गांधी को हमलोग कम से कम 20-25 वर्षों से देख रहे हैं, पिछले 18 वर्षों से तो करीब से, जब वो 2004 में सक्रिय राजनीति में आए. राहुल गांधी को अमेठी लोकसभा सीट विरासत में मिली, यहाँ से जीतने के बाद वो संसद की चौखट पार कर लोक सभा भी पहुंचे, वहीं  अमेठी जहां से कभी उनके पिता राजीव गांधी और चाचा संजय गांधी भी जीतकर संसद पहुंचे थे. राहुल को भी जिस अमेठी की जनता ने हाथों-हाथ जीताकर संसद भेजा वहीं से 2019 में राहुल को स्मृति ईरानी के हाथों मुंह की भी खानी पड़ी.

गांधी परिवार से आने की वजह से राहुल गांधी के सामने पहचान का संकट कभी नहीं रहा. मीडिया राहुल गांधी में राजीव का अक्स दिखा. वहीं राजीव गांधी वाला चाल- ढ़ाल, वहीं नैन नक्श. वहीं अंदाज़-ए- गुफ़्गु , वही सलीका, चेहरा-मोहरा भी वही. वर्ष 1984 में पहले दादी इन्दिरा की हत्या हुई और फिर 1991 में पिता राजीव गांधी की. राहुल गांधी को आम लोगों वाली सामान्य ज़िंदगी नहीं मिली, जो किसी साधारण परिवार में मिल सकती थी.

आपके शहर से (पटना)

राहुल का पहला बड़ा टेस्ट 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में हुआ जहां स्टार प्रचारक होने के बावजूद भी काँग्रेस को 403 में से सिर्फ 22 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. राजनीति क्रूर होती है, हर बात का हिसाब मांगती है। सफलता या असफलता राजनीतिक ज़िंदगी का हिस्सा पैमाना बनता है। यूपीए-2 के बाद काँग्रेस की हार ने इस सोच को हवा दी कि राहुल गांधी पार्टी को सही दिशा में लेकर जाने में सक्षम नहीं हैं। राहुल गांधी में वो “वॉ फैक्टर” नहीं हैं, जो मोदी में हैं.

युवा नेता राहुल गांधी से लोगों को खूब उम्मीदें हैं लेकिन उन उम्मीदों को वोट की खेती में राहुल बदलना नहीं जानते. एक समय राहुल गांधी पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी की चर्चा करते थे. लेकिन हर चुनाव के बाद कोई नेता पुत्र ही जीतकर सामने आता। राहुल गांधी “बाबा” लोगों से मुक्त हुए या नहीं पर वर्षों काँग्रेस में खपाने वाले, रुष्ट बुजुर्ग नेता, जी-23 के बैनर के नीचे गांधी परिवार के खिलाफ ज़रूर लामबंद हैं. पिता और दादी की मौत के बाद राहुल गांधी को देश और समाज को समझने का खूब मौका मिला. पारंपरिक मीडिया, अखबार या टेलिविजन के जरिये राहुल गांधी ने दर्जनों मौकों पर अपनी बात रखी.

2009 के लोक सभा चुनाव में भी राहुल ने सेंकड़ों रैलियाँ कीं. गाँव-गाँव में जाकर दलितों के घर में ठहरे, मेट्रो का सफर किया। किसानों और आदिवासियों के समर्थन में यात्राएं की. भला भट्टा परसौल को कौन भूल सकता हैं जहां राहुल गांधी ने किसानों की ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ दिन-रात एक कर दिया। क्या ये काफी नहीं था देश को समझने या स्थानीय समस्याओं की समझ बढ़ाने के लिए. दिल्ली प्रैस क्लब में अपनी ही सरकार के द्वारा लाये गए अध्यादेश को फाड़ने के बाद राहुल गांधी चर्चा में आए, राहुल ने आवेग में अपनी एक चुनी हुई सरकार के वैध फैसले पर भी प्रश्न चिन्ह उठा अपनी ही सरकार को देश और विपक्ष की नजरों में कमजोर साबित किया. 2014 और 2019 के चुनाव ने काँग्रेस को राजनीतिक तौर पर बौना साबित कर दिया, जिसका नेतृत्व राहुल कर रहे थे। राजनीतिक समझ रखने वाले लोग या प्रश्न उठाते हैं कि बार बार चुनाव हारकर भी राहुल गांधी

शीर्ष पर कैसे बने हुए हैं?
क्या राहुल गांधी के अन्तर्मन में हार की टीस नहीं होती होगी?
ज़रूर होती होगी लेकिन राहुल गांधी जिस दौर में राजनीति कर रहे हैं, ये वो समय है जब भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे ज़मीन से जुड़े नेता कर रहे हैं, जो संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी हैं. 2014 और 2019 में बीजेपी को शानदार जीत दिलवाने वाले मोदी और अमित शाह कभी छुट्टी नहीं लेते. मोदी को समझना मुश्किल है, एक जीत के बाद मोदी दूसरी लड़ाई की तैयारी में लग जाते हैं.

पिछले दिनों आपने हिमाचल के एक बीजेपी कार्यकर्ता पीएम मोदी के साथ बातचीत का ओडियो ज़रूर सुना होगा। भले ही बीजेपी अपनी अंतर्कलह की वजह से हिमाचल हार गई हो लेकिन सबको ये पता चल गया कि मोदी एक- एक कार्यकर्ता से भी बात करने में गुरेज नहीं करते. गुजरात में लगातार चुनाव हार रही काँग्रेस के एक बड़े नेता कहते हैं कि मोदी अपने धुर विरोधी कॉंग्रेस नेताओं की भी मदद करते हैं।
आज जब 2024 लोक सभा चुनाव से पहले एक वृहत्तर विपक्ष की कल्पना की रही है, राहुल गांधी खुद को कहाँ पाते हैं?

वैचारिक धरातल पर राहुल गांधी दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक एक लंबी लकीर खींचने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन बात जब “रियल पॉलिटिक्स” की होगी, यात्रा का आकलन भी जरूर किया जाएगा।
जिन-जिन राज्यों से होकर यात्रा गुजरी है, क्या वहाँ काँग्रेस मजबूत हुई? मसलन कर्नाटक और राजस्थान में? हरियाणा या पंजाब में काँग्रेस साफ हो गई है, वहाँ आगे क्या हो जाएगा? उत्तर प्रदेश या बिहार में क्या होगी काँग्रेस के रणनीति, इन दो राज्यों पर फतह हासिल किए बिना क्या कोई दिल्ली की सरकार बनाने की सोच सकता है? बिहार में तो काँग्रेस का पतन काफी पहले हो चुका है. बिहार में काँग्रेस राजद की पिछलग्गू पार्टी बन गई है. काँग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा बिहार में नए वर्ष में शुरू होगी लेकिन काँग्रेस को क्या महागठबंधन का साथ मिलेगा?नीतीश कुमार अभी बिहार में महागठबंधन का हिस्सा हैं लेकिन वो बड़ी मासूमियत के साथ कहते हैं, वो यात्रा के बारे में “कुछ नहीं जानते”.
जिस दिन 5 जनवरी को काँग्रेस की यात्रा बिहार आएगी, नीतीश भी उसी दिन अपनी यात्रा शुरू करेंगे.

चुनावी रणनीतिकर प्रशांत किशोर अक्टूबर से ही “जन सुराज” यात्रा पर हैं.
भारत जैसे सतरंगे राजनीतिक विचारों वाले देश में वैसे भी चरैवैति-चरैवैति यानि चलते रहने की परंपरा रही है. शायद इन यात्राओं से ही सौभाग्य बढ़े.

(डिसक्लेमर – लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

टैग: बिहार के समाचार, पटना न्यूज, Rahul gandhi

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