सलिल विश्नोई केस ऐतिहासिक लेकिन ऐसा पहली बार नहीं, यूपी विधानसभा में पहले भी लग चुकी हैं अदालतें

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लखनऊः उत्तर प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र की कार्यवाही शुक्रवार को कुछ देर के लिए रोक दी गई। इस दौरान सदन को कोर्ट में तब्दील कर दिया गया, जिसमें 18 साल पुराने मामले के 6 अभियुक्तों को पेश किया गया और उन्हें सजा सुनाई गई। मामला 2004 का है, जब प्रदेश में सपा की सरकार थी। इस दौरान बीजेपी के तत्कालीन विधायक सलिल विश्वोई को विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिसकर्मियों ने पीट दिया था। इसे लेकर विधायक के विशेषाधिकार हनन का मामला चल रहा था। शुक्रवार को संसदीय कार्यमंत्री सुरेश खन्ना ने मामले को लेकर 6 पुलिसकर्मियों को दोषी करार देने और फिर उन्हें दंडित कपने का प्रस्ताव सदन में पेश किया। ध्वनिमत से प्रस्ताव के पास होने के बाद स्पीकर ने अपना फैसला सुनाते हुए सभी 6 पुलिसकर्मियों को एक दिन की कारावास की सजा का ऐलान कर दिया। तारीख बदलने तक ये पुलिसकर्मी सदन में ही बने एक स्पेशल सेल में रहेंगे।

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उत्तर प्रदेश की विधानसभा में हुई ये कार्यवाही ऐतिहासिक है लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले दो बार यूपी विधानसभा को अदालत में बदला गया है। पहला मामला यूपी विधानसभा के तीसरे कार्यकाल के समय का है। तब सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता केशव सिंह ने गोरखपुर से लेकर विधानभवन के गलियारों तक एक पोस्टर चिपका दिया था, जिसमें कांग्रेस के विधायक नरसिंह नारायण पांडेय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे।

विधायक ने इसे विशेषाधिकार हनन मानते हुए विधानसभा स्पीकर मदन मोहन वर्मा से गुहार लगाई और मामला विशेषाधिकार समिति को भेज दिया गया। समिति ने केशव सिंह सहित चार लोगों को विशेषाधिकार हनन का दोषी माना और सदन के सामने पेश होने को कहा। बाकी लोग तो सदन के सामने आए, लेकिन केशव सिंह ने यह कहकर आने से मना कर दिया कि उनके पास गोरखपुर से आने के लिए पैसे नहीं हैं।

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इस बीच केशव सिंह ने स्पीकर को चिट्ठी भेजकर कहा कि सदन में तलब कर उन्हें चेतावनी दिए जाने का फैसला ‘नादिरशाही’ है। इससे विधानसभा आग-बबूला हो गई। मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने सदन में प्रस्ताव रखा कि केशव सिंह को गिरफ्तार कर 7 दिन के लिए जेल भेजा जाए, जो पारित भी हो गया। केशव सिंह को मार्शल गोरखपुर से गिरफ्तार करके लाए और उन्हें जेल भेज दिया गया।

इसके अलावा, सबसे ताजा मामला 34 साल पहले का है। 2 मार्च 1989 में एक अधिकारी शंकर दत्त ओझा को सदन में तलब किया गया था। ओझा तत्कालीन यूपी तराई विकास जनजाति निगम के अधिकारी थे। उन पर सदन के सदस्य हरदेव के साथ बदसलूकी करने का आरोप लगा था। यह मामला भी विशेषाधिकार हनन का था, जिसमें केस दर्ज होने के बाद ओझा को सदन में पेश होना पड़ा। आज से पहले यह आखिरी मौका था, जब सदन को कोर्ट में तब्दील किया गया था।

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