Home Politics जानिए क्यों अखिलेश के ‘शूद्र’ बयान पर बिफर पड़ीं मायावती और याद दिलाया यूपी का कुख्यात स्टेट गेस्ट हाउस कांड

जानिए क्यों अखिलेश के ‘शूद्र’ बयान पर बिफर पड़ीं मायावती और याद दिलाया यूपी का कुख्यात स्टेट गेस्ट हाउस कांड

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जानिए क्यों अखिलेश के ‘शूद्र’ बयान पर बिफर पड़ीं मायावती और याद दिलाया यूपी का कुख्यात स्टेट गेस्ट हाउस कांड

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश में रामचरित मानस को लेकर शुरू हुआ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस पर सवाल उठाए तो समर्थन में सपा प्रमुख अखिलेश यादव का ‘शूद्र’ वाला बयान आ गया। अब इसी बयान को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती हमलावर हो गई हैं। उन्होंने अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को न सिर्फ इस शब्द के इस्तेमाल पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यूपी के स्टेट गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाते हुए अपने गिरेबान में झांकने तक की सलाह दे डाली है। तो आखिर राजनीति क्या है? ये समझने के लिए आपको समय में थोड़ा पीछे जाना होगा।

2019 लोकसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने भाजपा को चुनौती देने के लिए रणनीति बनाई, उन्होंने बसपा सुप्रीमो से मिलकर यूपी में सपा-बसपा गठबंधन खड़ा किया। रणनीति साफ थी, अखिलेश यादव 90 के दशक में मुलायम और कांशीराम के सपा-बसपा गठबंधन के प्रयोग को दोहराना चाहते थे। उस समय इसी प्रयोग ने राम मंदिर आंदोलन पर सवार भारतीय जनता पार्टी के रथ को रोक दिया गया था। हालांकि उसके बाद दोनों दल जिस तरह एक दूसरे से अलग हुए और तल्खी का दौर दो दशकों तक चला, उसे भुलाते हुए अखिलेश ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया। लेकिन चुनाव में ये गठबंधन कुछ खास नहीं कर सका। उन्हें इस गठबंधन का कोई लाभ नहीं मिला, वह आजमगढ़, मैनपुरी, मुरादाबाद, संभल और रामपुर सीट ही जीत सके, जहां सपा हमेशा से मजबूत रही। वहीं बसपा के खाते में 10 सीटें आईं, ये वही बसपा थी जो 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। साफ दिख रहा था कि बसपा को सीधा फायदा गठबंधन से मिला लेकिन सपा को कोई लाभ नहीं हुआ। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद मायावती ने ये कहकर गठबंधन तोड़ दिया कि सपा को बसपा का वोट बैंक ट्रांसफर हुआ लेकिन सपा समर्थकों ने बसपा प्रत्याशी को समर्थन नहीं दिया।

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मायावती के इस कदम पर अखिलेश चुप ही रहे। लेकिन इसके बाद से ही उन्होंने दलित वोटबैंक और गैर यादव जातियों को जोड़ने की रणनीति पर तेजी से काम करना शुरू किया। 2022 विधानसभा चुनाव आते-आते समाजवादी पार्टी ने बसपा के कुनबे को अच्छी खासी चोट पहुंचाई। बसपा के कई विधायक असलम राइनी, हरगोविंद भार्गव, मुज्तबा सिद्दीकी, हाकिम लाल बिंद, सुषमा पटेल, असलम चौधरी सपा में शामिल हो गए। यही नहीं राम अचल राजभर, लालजी वर्मा जैसे दिग्गज नेताओं ने भी चुनाव से पहले अखिलेश का हाथ थाम लिया। इसके अलावा बसपा संगठन से जुड़े कई नेताओं को सपा में जगह दी गई।

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बसपा को इस टूट का काफी नुकसान हुआ। विधानसभा चुनाव में ये पार्टी सिर्फ एक सीट ही जीत सकी, वहीं अखिलेश यादव 2017 की 47 सीटों से सीधे 111 तक पहुंच गए। सपा की इस जीत में बसपा से आए नेताओं का भी विशेष योगदान माना जाता है। उदाहरण के तौर पर अम्बेडकरनगर जिले पर नजर डाल लेते हैं। ये जिला कभी बसपा का गढ़ माना जाता था। राम अचल राजभर और लालजी वर्मा इसी जिले के दिग्गज नेता रहे हैं। उनके सपा में आने का लाभ ये हुआ चुनाव में सपा ने अंबेडकरनगर की सारी सीटें जीत लीं। अकबरपुर से राम अचल राजभर जीते, वहीं कटेहरी से लालजी वर्मा जीते। इसके अलावा अलापुर, जलालपुर और टांडा में भी सपा ने परचम लहराया।

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चुनाव में बुरी हार के बाद मायावती ने रणनीति बदली और बसपा पुरानी दलित-मुस्लिम रणनीति पर लौट आई। उन्होंने मुस्लिम वोटबैंक पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया। चाहे वह जेल में बंद आजम खान को लेकर बयान देने की बात हो या इमरान मसूद को बसपा ज्वाइन करानी हो, मायावती तेजी से अपनी रणनीति पर काम करती दिखी। आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा चुनाव में ये रणनीति कहीं न कहीं काम भी कर गई। इस चुनाव में बसपा कुछ खास नहीं कर सकी लेकिन मुस्लिम मतदाताओं की खोई ताकत वापस हासिल करने की तरफ बढ़ती जरूर दिखाई दी। इस चुनाव में मायावती की रणनीति की काफी चर्चा रही। आजमगढ़ सीट, जो अखिलेश यादव ने खाली की थी और उनके भाई धर्मेंद्र यादव चुनाव लड़ रहे थे। वहां बसपा ने गुड्‌डू जमाली को मैदान में उतारा।

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गुड्‌डू जमाली की मुस्लिम मतदाताओं में अच्छी पकड़ मानी जाती है, वह पहले बसपाई ही थे लेकिन 2022 विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम चले गए थे। वह एआईएमआईएम के अकेले ऐसे नेता थे, जिनकी चुनाव में जमानत नहीं जब्त हुई थी। बहरहाल, गुड्डू जमाली को बसपा टिकट मिला तो आजमगढ़ उपचुनाव में उन्होंने दम दिखा दिया। इस चुनाव में बसपा तीसरे स्थान पर रही और सपा से धर्मेंद्र यादव भाजपा के हाथों ये सीट हार गए। बसपा भले ही नहीं जीती लेकिन उसने मुस्लिम मतदाताओं में फिर से विश्वास जगाने में सफलता हासिल की। खुद मायावती ने गुड्‌डू जमाली के प्रदर्शन की सराहना की। वहीं रामपुर, जो आजम खान के इस्तीफे से खाली हुई थी, वहां बसपा ने प्रत्याशी नहीं उतारा। ये करके उसने कहीं न कहीं मुस्लिम मतदाताओं को संदेश देने की कोशिश की। अखिलेश ये सीट भी हार गए।

एक तरफ बसपा मुस्लिमों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव भी यादव मुस्लिम गठजोड़ में गैर यादवों और दलितों को शामिल करने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में रामपुर में हुए विधानसभा उपचुनाव के दौरान भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर के साथ अखिलेश ने मंच साझा किया। यही नहीं दलितों के मुद्दे पर अखिलेश यादव मुखर होकर आवाज उठा रहे हैं। इस बीच स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस पर विवादित बयान दिया तो शुरुआत में सपा नेताओं की तरफ से ऐसे बयान आए, जिनसे लगा कि अखिलेश यादव स्वामी से खफा हैं और कोई कार्रवाई हो सकती है। लेकिन अखिलेश यादव ने स्वामी का समर्थन कर दिया और उनका ‘शूद्र’ बयान चर्चा का विषय बन गया। अखिलेश का बयान से साफ है कि वह जाति की राजनीति करेंगे। यही कारण है कि मायावती ने पूरी ताकत से उनके इस ‘शूद्र’ बयान का विरोध किया है, उन्होंने ये भी संदेश देने की कोशिश की है कि अखिलेश यादव उसी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष हैं, जिसकी सरकार में स्टेट गेस्ट हाउस कांड, उन पर (दलित की बेटी) जानलेवा हमला हुआ।

बता दें यूपी के इस कुख्यात कांड को 90 के दशक का टर्निंग प्वाइंट माना जाता है। इस कांड के बाद से यूपी में सपा और बसपा बड़े विरोधी ध्रुव बन गए, दोनों पार्टियों ने इसके बाद से सरकारें बनाई और एक समय ऐसा भी आ गया कि भाजपा पूरी तरह से हाशिए पर चली गई। एक तरफ स्वामी और अखिलेश के बयान के बाद साफ दिखने लगा कि बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड की तोड़ जातिगत राजनीति से खोजने की कोशिश शुरू हो चुकी है। वहीं दूसरी तरफ अब मायावती के बयान ने इशारा कर दिया है कि जातिगत राजनीति करना अखिलेश यादव के लिए इतना आसान भी नहीं होने जा रहा।

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