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हालांकि, यह दांव मायावती पर भारी पड़ गया। इस चुनाव के बाद पार्टी लगातार प्रदेश के चुनावी मैदान में पिछड़ती चली गई। करीब 2 साल बाद ही हुए लोकसभा चुनाव 2009 में पार्टी को आशातीत सफलता नहीं मिली। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी। सत्ता में रहने के बावजूद प्रदेश में पार्टी तीसरे स्थान पर रही। बसपा के आगे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस थी। सपा को 23 और कांग्रेस को 21 सीटों पर जीत मिली थी। 2007 के यूपी चुनाव में बसपा के साथ गया ब्राह्मण वोट बैंक कांग्रेस से जुड़ा और पूरा खेल पलट गया। मायावती ने अपने शासनकाल में विकास और कानून व्यवस्था की स्थिति का जिक्र अब तक करती हैं, लेकिन इसे अपने वोट बैंक तक पहुंचाने में वे कामयाब नहीं रहीं। 2007 से 2012 तक यूपी की सत्ता में रहने और प्रभावी कानून व्यवस्था के बावजूद मायावती प्रदेश की राजनीति में वह छाप नहीं छोड़ पाई, जिससे उनकी वापसी संभव हो सके। ऐसे में उन्होंने आगामी राजस्थान, कर्नाटक, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और वर्ष 2024 के आम चुनाव से पहले गठबंधन न करने की घोषणा कर बड़ा संदेश अपने वोट बैंक को देने का प्रयास किया है।
गठबंधन का नहीं मिला लाभ
लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से हुए चुनाव परिणाम इसकी गवाही देते हैं। बसपा ने इस दरम्यान कई राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन किया, लेकिन उसका परिणाम पार्टी के पक्ष में उस स्तर पर निकल कर नहीं आया। बसपा के संस्थापक कांशीराम पंजाब से आकर यूपी की राजनीति को खासा प्रभावित किया था। लेकिन, पंजाब चुनाव 2022 में बसपा ने अकाली दल से गठबंधन किया और पार्टी को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली। अन्य राज्यों में भी पार्टी को गठबंधन का लाभ नहीं मिल पाया है। समान विचारधारा वाली पार्टियों से गठबंधन के बाद भी मायावती अपने वोट बैंक को अपने पक्ष में मोड़ पाने में कामयाब नहीं हो पाई। वोट ट्रांसफर कराने में कामयाबी नहीं मिली तो अब उन्होंने वोट बैंक के बीच खुद को स्थापित करने का निर्णय ले लिया है।
कांशीराम ने बहुजन समाज को उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करते हुए बसपा की स्थापना की थी। वे अपने उस लक्ष्य को लेकर चलते रहे। लेकिन, वर्ष 2007 में मायावती ने जिस मनुवाद की खिलाफत को लेकर पार्टी का गठन किया गया, उस ब्राह्मण समाज को साथ ले लिया। इसके बाद दलितों का एक प्रकार से इस पार्टी से मोहभंग हुआ। वर्ष 2014 में यूपी की राजनीति में पीएम नरेंद्र मोदी की दखल ने गैर यादव ओबीसी वर्ग को अपनी तरफ लाने में बड़ी कामयाबी हासिल की। यह बसपा के लिए पहला झटका था। इसके बाद से लगातार मायावती को झटके लगे हैं।
2014 के चुनाव से बदली स्थिति
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से स्थिति में बदलाव होता दिखा। यूपी की राजनीति पलटी। सवर्ण और ओबीसी एक पाले में आए तो तमाम गठबंधन धराशायी हो गए। भाजपा ने इसके बाद मायावती की दलित पॉलिटिक्स में सेंधमारी की। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव परिणाम इसकी गवाही देते हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 19.60 फीसदी वोट मिले, लेकिन पार्टी का एक भी सांसद नहीं चुना जा सका।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी अकेले दम पर चुनावी मैदान में उतरी। 22.24 फीसदी वोट मिले। लेकिन, विधानसभा में महज 19 सीटों पर पार्टी को जीत मिली। इस परिणाम ने पार्टी को विचलित किया। मायावती ने विरोध की राजनीति वाली पार्टी सपा के साथ गठबंधन का फैसला किया। अखिलेश यादव और मायावती का गठबंधन तब बबुआ-बुआ के मिलन के रूप में प्रचारित किया गया। लेकिन, लोकसभा चुनाव 2019 में गठबंधन 15 सीटों पर जीती। सपा को 5 और बसपा को 10 सीटों पर जीत मिली।
सीट बढ़ी, लेकिन संदेश था साफ
समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन मायावती के लिए भारी पड़ा। जिस प्रकार वर्ष 2007 में छोटे लक्ष्य के लिए ब्राह्मणों को साधने का जो दांव मायावती ने खेला था, कुछ उसी प्रकार की स्थिति फिर दिखी। मायावती का वोट बैंक समाजवादी पार्टी की खिलाफत करता रहा था। लखनऊ का गठबंधन गांवों में उतर नहीं पाया। इस कारण वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 19.3 फीसदी वोट हासिल करने के बाद भी बसपा भाजपा को 49.6 फीसदी यानी करीब 50 फीसदी वोट हासिल करने से रोक नहीं पाई। गठबंधन से नाराज वोट बैंक ने भाजपा का रुख कर लिया। यूपी चुनाव 2022 में कुछ यही स्थिति दिखी। गैर जाटव दलित वोट भाजपा और सपा में बंटता दिखा।
मायावती अब इसी वोट बैंक को साधने की कोशिश करती दिख रही हैं। अपने आधार वोट बैंक दलित और मुस्लिम को साधने की कोशिश मायावती ने शुरू की है। पश्चिमी यूपी में इमरान मसूद जैसे नेताओं के जरिए पार्टी का जनाधार बढ़ाने का प्रयास है। चलो गांव की ओर कार्यक्रम के जरिए पार्टी अपने वोटरों को मनाने की कोशिश करेगी। उन्हें समझाया जाएगा कि पार्टी अब अपने पुराने स्वरूप में लौट आई है। लोग मानते हैं या नहीं, देखना दिलचस्प होगा।
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