Home Politics अखिलेश यादव की दो ऐतिहासिक भूल और राहुल गांधी को ना, अब नेताजी की ताकत से दिखाएंगे दम

अखिलेश यादव की दो ऐतिहासिक भूल और राहुल गांधी को ना, अब नेताजी की ताकत से दिखाएंगे दम

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अखिलेश यादव की दो ऐतिहासिक भूल और राहुल गांधी को ना, अब नेताजी की ताकत से दिखाएंगे दम

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अखिलेश में अचानक अपने पिता मुलायम सिंह यादव की छवि दिखाई देने लगी है। सपा नेता ने कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन से इनकार कर दिया है। उन्होंने साफ कहा, कांग्रेस अपनी भूमिका तय करे। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, हमलोग क्षेत्रीय पार्टी हैं। संसद में किसी मुद्दे पर कांग्रेस के साथ आने का मतलब जमीन पर साथ आना नहीं है। यानी अखिलेश को उस जमीनी हकीकत का पता चल गया जो राममनोहर लोहिया के चेले नेताजी को पहले दिन से पता था। कांग्रेस से रिश्ता रखो लेकिन गठबंधन नहीं। इसी नीति पर मुलायम चलते रहे। 1967 में वो पहली बार विधायक बने तो कांग्रेस विरोध के कारण। लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर जसवंतनगर से उन्होंने जीत हासिल की। 52 साल के राजनीतिक करियर में उन्होंने कांग्रेस से दोस्ती भी रखी और दुश्मनी भी लेकिन कभी साथ चुनाव नहीं लड़ा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से परेशान ओबीसी को साधने वाले मुलायम ने यही मंत्र अखिलेश यादव को भी दिया। लेकिन दुश्मन यानी भाजपा के भय से वो इतने भयभीत हो गए कि दो साल के भीतर राहुल के साथ यूपी के लड़के भी कहलाए और बुआ यानी मायावती के भतीजे भी। नतीजा क्या निकला सबको पता है। और शायद यही बात ममता बनर्जी ने अखिलेश के कान में कही होगी। ममता खुद कांग्रेस से अलग हुईं तो उसका विरोध पश्चिम बंगाल में आज तक जारी है। ममता को पता है कि कांग्रेस के साथ दिल्लगी का मतलब अपनी जड़ें काटना होगा। यही बात अखिलेश को भी समझ आ गई है।

​हवा में उड़ गए जय श्रीराम​

​हवा में उड़ गए जय श्रीराम​

1989 में जब जनता दल के नेता के तौर पर वो पहली बार यूपी के सीएम बने तो ये कांग्रेस विरोध का नतीजा थी। और केंद्र में वीपी सिंह की तरह यूपी में भी भारतीय जनता पार्टी ने उनकी सरकार को समर्थन दिया। जब 1990 के आखिर में जनता दल टूट गई तो मुलायम समाजवादी जनता दल में चले गए जो चंद्रशेखर का गुट था। उनकी सरकार बच गई क्योंकि कांग्रेस ने समर्थन दे दिया। अचानक राजीव गांधी ने चंद्रशेखर के साथ खेल कर दिया तो यूपी में भी सरकार गिर गई। 1991 के चुनाव में मुलायम सिर्फ 34 सीटों पर सिमट गए। अगले साल उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन से परहेज किया। लेकिन समाजवादी सोच के साथ ऐसा किया। वैचारिक विरोधियों से चुनाव मैदान में हाथ नहीं मिलाया। हां, बाहर दोस्ती जारी रही। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद जब 1993 में यूपी में चुनाव हुए तो कांशीराम और मुलायम साथ लड़े। दोनों की जोड़ी ने प्रचंड भगवा लहर को रोक दिया। 422 में 420 सीटों पर सपा-बसपा लड़ी और 176 सीटें झोली में गई। मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम का नारा काम कर गया। लेकिन भाजपा ने अकेले 177 सीटें जीती। मुलायम अब सेक्युलर थे। लिहाजा भाजपा को बाहर रखने के लिए उन्होंने कांग्रेस से समर्थन ले लिया। चार दिसंबर, 1993 को सीएम बन गए। लेकिन जनवरी, 1995 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और फिर जून में वो गेस्ट हाउस कांड जिसने मुलायम और मायावती के बीच खाई खींच दी। मुलायम सरकार बर्खास्त कर दी गई।

​​नेताजी का वोटर और अखिलेश​

​​नेताजी का वोटर और अखिलेश​

सवाल उठता है कि नेताजी का वोटर कौन था और अखिलेश ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया। पहले तो ये समझना चाहिए जब एनडी तिवारी यूपी से रूखसत हुए और मुलायम आए तो ये सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था बल्कि सामाजिक चेतना नई करवट ले रही थी। यादवों के अलावा सारा ओबीसी और कांग्रेस से मुक्त हो रहा दलित समाज उनके साथ आया। पहले कार्यकाल में मुलायम ने एससी, एसटी, ओबीसी के बच्चों के लिए कोचिंग स्कीम शुरू की। मंडल कमिशन की तर्ज पर ओबीसी रिजर्वेशन 15 परसेंट से बढ़ाकर 27 परसेंट किया। पंचायती राज में भी रिजर्वेशन लागू किया। भाजपा तो इस बीच यूपी से बाहर ही हो गई थी। 2003 से 2007 के बीच मुलायम ने ही सरकार चलाई और फिर मायावती ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ से प्रचंड बहुमत हासिल किया। फिर बारी अखिलेश की आई। 2012 में यूपी को नौजवान सीएम मिला। हां, शिवपाल जरूर दरकिनार किए गए। परिवार में दुश्वारियां शुरू हुई। लेकिन अखिलेश ने 2017 में वो गलती की जिसका सबक उन्हें 2023 में मिला है।

​​अखिलेश का ब्लंडर​

​​अखिलेश का ब्लंडर​

​मोदी लहर से परेशान अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादियों के दुश्मन कांग्रेस के साथ गठबंधन का फैसला किया। 29 जनवरी के दिन यूपी के लड़कों – राहुल गांधी और अखिलेश यादव- की पहली साझा रैली थी। इसके कुछ घंटों बाद ही मुलायम ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि वह इस समझौते के खिलाफ हैं। उनकी पार्टी खुद अपने बूते बहुमत हासिल कर सकती है। मुलायम ने क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर यूपी में कांग्रेस को फटकने तक नहीं दिया लेकिन केंद्र में वो पार्टी के हितों के मुताबिक पेश आते थे। ये वही मुलायम थे जिन्होंने 17 अप्रैल 1999 के दिन एक वोट से वाजपेयी सरकार गिरने के बाद सोनिया गांधी के पीएम बनने के सपने पर पानी फेर दिया था। वो पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा गरम किया। शरद पवार तो उसके बाद सामने आए। और ये वही मुलायम थे जिन्होंने अपने 36 सांसदों के बूते 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार बचाई थी जब अमेरिका से परमाणु डील के मुद्दे पर लेफ्ट ने समर्थन वापस ले लिया था। अखिलेश ने यही गलती 2019 में दोहराई जब उन्होंने मायावती के साथ गठबंधन किया। पार्टी पांच सीटों पर सिमट गई।

​2024 का प्लान

2024-

अब अखिलेश के कोलकाता मंथन को देखें तो ऐसा लगता है कि देर हुई है पर वो दुरूस्त लौटे हैं। मुलयाम ने कांग्रेस विरोध और धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति की धुरी बनाई। इस मामले में वो लालू यादव से अलग रहे। लालू हमेशा कांग्रेस को साथ लेकर चलने के हिमायती रहे हैं। और महागठबंधन के अगुआ। दूसरी ओर मुलायम को देखिए। चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवगौड़ा को पीएम बना मंत्री बन गए लेकिन चुनाव से पहले गठबंधन नहीं किया। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और केसीआर इसी रास्ते पर हैं। अब थर्ड फ्रंट बनता है या नहीं। और बनता भी है तो रणनीति अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ लड़ने की हो सकती है। फिर नतीजों के बाद फ्रंट कोई भी हो , पूरे विपक्ष को मिलाकर मैजिकल नंबर मिलता है तो दिल्ली में कांग्रेस से दूरी मिनटों में दूर हो सकती है। इस लिहाज से अखिलेश का यूपी प्लान रास्ते पर है। उन्होंने जातीय गणना को बड़ा मुद्दा बनाया है और 34 हजार करोड़ के निवेश के दावे पर वो लगातार हिसाब मांगने वाले हैं। योगी से मुकाबला कितना कर पाते हैं ये नतीजा बताएगा।

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