Home Entertainment ‘Sarkaru Vari Paata’ Film Review: एक उद्देश्यपूर्ण फिल्म की निरुद्देश निर्मिति है

‘Sarkaru Vari Paata’ Film Review: एक उद्देश्यपूर्ण फिल्म की निरुद्देश निर्मिति है

0
‘Sarkaru Vari Paata’ Film Review: एक उद्देश्यपूर्ण फिल्म की निरुद्देश निर्मिति है

[ad_1]

‘सरकारू वरी पाता’ फिल्म समीक्षा: पिछले करीब 7-8 सालों में सरकार और सोशल मीडिया के अनथक प्रयासों से देश में हो रहे या हो चुके नए-पुराने आर्थिक घोटालों का खुलासा किया जाने लगा है. आम व्यक्ति के मन में भी ये बात बड़ी ही खलने लगी है कि बैंक और फाइनेंशियल इंस्टिट्यूशन द्वारा बड़े उद्योगपतियों को करोड़ों के लोन दिए जाते हैं जो कभी वसूल नहीं किये जाते और साल के आखिर में उन्हें बैड डेट्स यानी अप्राप्य ऋण की श्रेणी में डालकर एक तरीके से माफ कर दिया जाता है. वहीं आम आदमी जो अपनी छोटी छोटी ज़रूरतों के लिए चंद हज़ारों या लाखों के लोन की ईएमआई भरने के लिए अपनी ज़िंदगी को रोज़ दांव पर लगाते हैं और कभी कभार ये मासिक किश्त न भर पाने की स्थिति में बैंक की उगाही करने वाले अफसरों या नोटिस के डर से नज़रें चुराते नज़र आते हैं.

दरअसल, पैसा वसूल करने वाले को अपने पैसे पाने की चिंता करनी चाहिए, लेकिन गरीब और मध्यमवर्ग को पैसा लौटाने की चिंता होने लगती है और उच्च वर्ग के लोग न लेते समय और न लौटाते समय चिंता करते हैं. हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज़ ‘सरकारु वारी पाटा’ फिल्म में इस समस्या और इस असमानता को दिखाया गया है. एक बढ़िया उद्देश्य पर बनी फिल्म बहुत ही निरुद्देश हो जाती है. तेलुगू सिनेमा की एक कमज़ोरी है कि वे विषय तो अच्छे चुनते हैं, लेकिन उसका प्रस्तुतिकरण इतना नाटकीय कर देते हैं कि ओटीटी में तरह तरह का कॉन्टेंट देख चुके दर्शक इस से जल्दी ऊब जाते हैं फिर भले ही फिल्म में महेश बाबू जैसा सुपर स्टार ही क्यों न हो.

फिल्म बेतुकी है. महेश (महेश बाबू) के माता पिता आर्थिक संकट और बैंक अफसर द्वारा लोन वसूली के तगादे की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं. पैसों की अहमियत समझ कर महेश बाबू बचपन में ही अपनी गर्दन पर एक रुपये के सिक्के का टैटू बनवा लेते हैं और फिर अमेरिका में एक बड़े फाइनेंसर बन जाते हैं. एक लड़की कलावती (कीर्ति सुरेश) को देख कर लट्टू हो जाते हैं, उसे 10000 डॉलर उधार देते हैं फिर उसे वसूलने उसे पिता और राज्य सभा के सदस्य राजेन्द्रनाथ (समुथिरकणि) के पास वाइज़ाग पहुंच जाते हैं.

एयरपोर्ट पर उनकी मुलाक़ात उसी बैंक अफसर (नाडिया मोईडू) से होती है जिसकी वजह से उनके पता पिता ने आत्म हत्या कर ली थी. कहानी में पेंच आता है जब राजेन्द्रनाथ पैसा देने के बजाये महेश को गुंडों से पिटवाने की गलती कर बैठता है. राजेन्द्रनाथ ने बैंक से 10000 करोड़ का उधर लिया था जिसे वो चुकाता नहीं है और इसलिए महेश पूरे शहर को बैंक की ईएमआई चुकाने से रोक देता है. थोड़ी एक्शन, थोड़ा रोमांस और थोड़े कनफ्लिक्ट के बाद सब ठीक हो जाता है. बैंक को उसके पैसे मिल जाते हैं और महेश को उसकी गर्लफ्रेंड.

उद्योगपतियों द्वारा बैंक का क़र्ज़ न लौटाना कोई मामूली बात नहीं है. भारत में आज भी ऐसे कई उद्योगपति हैं जो बैंक ऑफिशल्स से मिल कर क़र्ज़ सैंक्शन करवा लेते हैं और लौटाने में असमर्थता दिखा कर उसे बैड डेट घोषित करवा देते हैं. कई उद्योगपति हिंदुस्तान छोड़ के भाग चुके हैं और कई अभी भी मज़े की ज़िन्दगी जी रहे हैं. इसके ठीक विपरीत नौकरीपेशा आदमी जब भी कभी क़र्ज़ लेता है तो उसके सर पर सबसे बड़ा तनाव इस बात का होता है कि वो क़र्ज़ कैसे और कब उतारे. यदि किसी महीने वो ईएमआई नहीं चुका पाता या उसे देर हो जाती है तो डर लगा रहता है कि कोई घर पर वसूली करने न आ जाये और उसकी वर्षों की इज़्ज़त नीलम न कर दे. ये समस्या आज विकराल स्वरुप ले चुकी है. ऐसा भी संभव है कि किसी दिन ये माध्यम वर्ग विद्रोह कर बैठे जैसा इस फिल्म में दिखाया गया है लेकिन वो एक सपना ही लगता है. इतने संवेदनशील विषय पर एक हलकी फुलकी फिल्म बनाने से पहले निर्देशक के दिमाग में क्या चल रहा था, वो ही जाने. महेश बाबू सुपर स्टार हैं और उनकी कई फिल्में हिंदी में डब होती हैं या रीमेक होती हैं. इसके बावजूद उन्होंने ऐसी बिना तुक की फिल्म क्योंकि ये समझना कठिन काम है.

लेखक निर्देशक परशुराम ने 2018 में इस कहानी का आयडिया महेश बाबू को सुनाया था जो कि 2020 में जा कर मंज़ूर हुआ. फिल्म में महेश बाबू हो तो बेहतरीन एक्शन होना ज़रूरी है. फिल्म में महेश बाबू हो तो बेहतरीन नाच-गाना होना भी ज़रूरी है. फिल्म में दोनों है लेकिन फिल्म में जो गड़बड़ है वो है अतिशयोक्ति. महेश बाबू अमेरिका जा कर लोन देने वाले बन जाते हैं, एक अदद कंपनी भी खोल लेते हैं और न सिर्फ अमेरिका में रहने वाले हिंदुस्तानी बल्कि विदेशी भी उनसे लोन लेते हैं. जो लोन नहीं चुकाते, महेश उनकी धुलाई करते हैं डायलॉग मारते हुए. लोन देने वाले महेश जब कीर्ति को देखते हैं तो उनके होश उड़ जाते हैं और बिना किसी कागज़ात के वो लोन दे भी देते हैं. लोन ले कर जब कीर्ति निकलती है तो वो एक लेक्सस कार में जाती है, महेश को कोई शक नहीं होता बल्कि वो अपनी बाइक पर (बिना हेलमेट) उसका पीछा करते हैं. जब महेश को पता चलता है कि कीर्ति दरअसल जुआ खेलने के लिए उनसे पैसे ले गयी थी, महेश तब भी ज़्यादा कुछ नहीं कर पाते सिवाय कीर्ति को थप्पड़ मारने के. कीर्ति के पिता भारत में राज्य सभा के सांसद हैं लेकिन अमेरिका की पुलिस उनके कहने पर हेलीकाप्टर में स्नाइपर भेज देती है महेश बाबू को डराने के लिए. महेश अगले ही दिन वाइज़ाग निकल पड़ते हैं बिना किसी से कीर्ति और उसके पिता के बारे में पूछताछ किये हुए. कीर्ति के पिता जो की सांसद हैं उन को महेश बीच रास्ते पर रोक कर अपने पैसे मांगते हैं. कीर्ति के पिता का साला उनका दाहिना हाथ है और एकदम बौड़म है.

फिल्म में फिल्म बनाने के नाम पर कल्पना की कई उड़ानें भरी गयी हैं. कई दृश्यों में तो लॉजिक ही नहीं नज़र आता. महेश का किरदार अच्छा है लेकिन जैसा वो अपनी हर फिल्म में होते हैं वैसे ही हैं बस इस बार ताली पीटो डायलॉग कम हैं. जब तक महेश स्क्रीन पर नज़र आते हैं फिल्म में फिर भी थोड़ा रस आता रहता है. एक गाने “मा मा महेशा) में महेश और कीर्ति दोनों को नाच दिखाने का मौका मिला है जिसे दर्शकों ने काफी पसंद भी किया है. महेश की एक्शन क्षमता पर किसी को संदेह है भी नहीं. उनकी अधिकांश फिल्मों के हिंदी रीमेक में सलमान खान होते हैं तो आप समझ सकते हैं कि फिल्म का मिज़ाज किस तरह का रहेगा. कीर्ति दिखने में सुन्दर हैं, थोड़ा बहुत अभिनय कर लेती हैं और इस से ज़्यादा इस फिल्म में उनकी उपयोगिता नहीं रखी गयी है. अरबपति पिता के पैसों पर अमेरिका में ऐश की ज़िन्दगी चल रही थी लेकिन हीरो के प्यार ने इतना प्रभाव डाला कि पिताजी द्वारा दिए गए ब्लैंक चेक ले कर हीरो को दे देती हैं ताकि बैंक के पैसे लौटाए जा सकें. एमपी राजेन्द्रनाथ की भूमिका में समुथिरकणि ने प्रत्येक दृश्य में एक जैसे एक्सप्रेशन रखे हैं. वो विलन हैं लेकिन हीरोइन के पिता हैं इसलिए उनसे ज़्यदा नफरत नहीं हो पाती और ना ही उन पर कोई ख़ास गुस्सा आता है जबकि समुथिरकणि एक काबिल निर्देशक हैं और कई सफल तमिल फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं. कुछ पुराने चेहरे जैसे अजय, ब्रह्मा जी, वेन्नला किशोर, रवि प्रकाश, सुब्बराजु, तनिकेल्ला भरणी फिल्म में मौजूद हैं. नागेंद्र बाबू (चिरंजीवी और पवन कल्याण के भाई और फिल्म निर्माता) भी फिल्म में महेश के पिता बने हैं.

एस थमन का संगीत मज़ेदार श्रेणी में रखा जा सकता है हालांकि महेश बाबू ने फिल्म में एक बहुत बड़े एक्शन सीक्वेंस को फिल्म में से हटा दिया था तो उसका थमन ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी क्योंकि थमन ने इस सीन के बैकग्राउंड स्कोर में बहुत मेहनत की थी. इसके ठीक विपरीत महेश को थमन का बैकग्राउंड म्यूजिक बिलकुल ही पसंद नहीं आया था और उन्होंने निर्देशक से इस बात की शिकायत भी की थी. खैर तनाव के बावजूद थमन के कंपोज़ किये हुए गीत जैसे “कलावती” और ” पेनी” तो बहुत हिट हो चुके थे. शैतान और गाज़ी अटैक जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा का परिचय दे चुके सिनेमेटोग्राफर माधि से बेहतर काम की उम्मीद थी, ठीक जैसे दृश्यम सीरीज के एडिटर मार्तण्ड के वेंकटेश से. दोनों का ही काम ऐसा नहीं कि इसे उनके बेहतर कामों में शामिल किया जाए. जुड़वां भाइयों राम और लक्ष्मण की एक्शन कोरियोग्राफी इस फिल्म का सबसे मजबूत पहलू है. फिल्म की शुरुआत में ही महेश बाबू का फाइट सीक्वेंस दर्शकों को मज़ा दिला देता है. क्लाइमेक्स की फाइट काफी टिपिकल है लेकिन महेश बाबू के फैंस काफी खुश होंगे.

महेश बाबू पिछले दिनों हिंदी फिल्मों में काम न करने के अपने फैसले के पक्ष में बड़ी बातें करते हुए नज़र आये थे जिस वजह से उनके हिंदी दर्शक नाराज़ हुए हैं. मीडिया की मदद से इस फिल्म को 200 करोड़ का व्यवसाय करते हुए दिखाने की कोशिश की गयी है हालांकि क्रिटिक और दर्शकों, दोनों ने ही फिल्म के प्रति नरम गरम रुख ही रखा है. फिल्म मसाला होते हुए भी अजीब लगती है क्योंकि फिल्म का विषय गंभीर है और उसका ट्रीटमेंट फ़िल्मी. हिंदी डब अभी तक रिलीज़ नहीं किया गया है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: छवि समीक्षा, Mahesh Babu

[ad_2]

Source link

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here