Home Entertainment तबस्सुम और टीवी; साथ गुल और गुलशन का… | – News in Hindi – हिंदी न्यूज़, समाचार, लेटेस्ट-ब्रेकिंग न्यूज़ इन हिंदी

तबस्सुम और टीवी; साथ गुल और गुलशन का… | – News in Hindi – हिंदी न्यूज़, समाचार, लेटेस्ट-ब्रेकिंग न्यूज़ इन हिंदी

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तबस्सुम और टीवी; साथ गुल और गुलशन का… | – News in Hindi – हिंदी न्यूज़, समाचार, लेटेस्ट-ब्रेकिंग न्यूज़ इन हिंदी

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आज विश्व टेलीविजन दिवस है. यानी टीवी की यादों का दिन. मौका तो टीवी की दुनिया की कुछ पुरानी यादें फिर से ताजा करने का है, पर इस मौके पर मनोरंजन के गुलदस्ते के एक सदाबहार फूल की गैर मौजूदगी बार-बार खल रही है. भारतीय टेलीविजन की दुनिया की सबसे मशहूर और आमजन की अजीज कही जाने वाली एंकरा तबस्सुम (78 वर्षीय) हमारे बीच नहीं रहीं. तीन दिन पहले यानी 18 नवंबर को मुबंई के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली.

उनके निधन की खबर दो दिन बाद दी जाए, ऐसा वह चाहती थीं. टीवी पर तबस्सुम के शो ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’, की प्रसिद्धि डेली सोप ओपेरा के दौर के आने से काफी पहले से थी. 80 के दशक में तो शो की प्रसिद्धि अपने चरम पर थी, जिसकी एकमात्र वजह थी तबस्सुम का ख़ास अंदाज. अपने इस एक शो के चलते टीवी ने तबस्सुम को और तबस्सुम ने टीवी को खूब जिया.

याद आ गया वो गुजरा जमाना

दरअसल, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के उस दौर में फूल खिले गुलशन गुलशन हो या सादगीभरे अंदाज से लुभातीं खबरें. तेरह एपिसोड की सीमित संख्या वाले सोप ओपेरा हों या मनोरंजक विज्ञापन, अस्सी और नब्बे के दशक की टेलीविजन की यादें भुलाए नहीं भूलती. आप इंटरनेट और सोशल मीडिया को भले ही कितना कोसिए, पर सच यही है कि इनकी बदौलत आप न केवल कुछ देर के लिए ही सही उस दौर को जी पाते हैं और अपने बच्चों को भी बता पाते हैं कि देखो ये था हमारे जमाने का टीवी.

हालांकि अस्सी के दशक के मध्य से पहले दूरदर्शन का केवल एक चैनल हुआ करता था और कार्यक्रमों की संख्या भी बेहद सीमित थी. टीवी सेट भी कम ही घरों में हुआ करते थे, क्योंकि सन 1975 तक देश के केवल सात शहरों में टीवी प्रसारण की सेवाएं थीं. ऊपर से बिजली का खर्च बचाने के लिए भी लोग टीवी कम ही चलाते थे. बावजूद इसके टीवी देखने का ऐसा चाव था कि कृषि दर्शन से लेकर शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य के कार्यक्रमों और यहां तक कि क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों तक को लोग टकटकी लगाए देखते थे. कृषि दर्शन का प्रसारण 26 जनवरी, 1967 को शुरू हुआ था और इसे भारतीय टीवी की दुनिया में सबसे लंबे चलने वाले शो के रूप में जाना जाता है, जिसके 52 सीजन्स के तहत 16 हजार से अधिक एपिसोड्स हैं.

देखा जाए तो 80 के दशक के मध्य में यानी सोप ओपेरा के दौर से पहले टीवी ने एक लंबा सफर तय किया, अपने दर्शकों तक पहुंचने के लिए.

तीन दशकों की दास्तान

कुछ मीडिया रपटों के मुताबिक सन 1950 में एक प्रदर्शनी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के एक छात्र ने मद्रास में टेलीविजन सेट लगाया था. इस घटना के बारे में दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता कि वह मुकम्मल तौर पर पहला टीवी प्रदर्शन था, या कोई प्रयोग. लेकिन इस घटना को भारत में टेलीविजन की पहली उपस्थिति के रूप में कहा-सुना जरूर जाता रहा है.

हालांकि देश में पहला टीवी ट्रांसमीटर 1951 में लगाया जा चुका था, लेकिन प्रायोगिक प्रसारण की शुरूआत 1959 में हुई और दैनिक प्रसारण 1965 से शुरू हुआ. दिल्ली के बाद दूसरे नंबर पर सन 1972 में मुंबई में प्रसारण केन्द्र शुरू किया गया, जिसके साथ देश के पहले सेलिब्रिटी शो यानी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन का भी आगाज (8 अक्तूबर, 1972) हुआ. हालांकि सत्तर के दशक में जब यह शो शुरू किया गया, तब टीवी पर इस तरह के कमर्शियल शोज नहीं हुआ करते थे. बाद में यह टीवी विज्ञापनदाताओं का पसंदीदा शो बन गया. आने वाले एक दशक में सात शहरों तक प्रसारण सेवाएं पहुंचने के बाद 1976 में टीवी को रेडियो से अलग कर दिया गया, जबकि राष्ट्रीय प्रसारण इसके और छह साल बाद यानी 1982 में शुरू हुआ. इसी दौर में कलर टेलीविजन की एंट्री हुई. यहां से कह सकते हैं कि टीवी की दुनिया को पंख से लग गये थे.

एंटीना से केबल और छतरी से सेट टॉप तक

जल्द ही हम लोग (1984), ये जो है जिंदगी (1984) करमचंद (1985), खानदान (1985) बुनियाद (1986), नुक्कड़ (1986), रामायण (1987), महाभारत (1988) और वागले की दुनिया (1988) जैसे शोज के आने से करीब एक दशक से अधिक समय तक टीवी से चिपके रहने वाले दर्शक वर्ग समूह में लगातार इजाफा होता रहा. इनमें रामायण और महाभारत, ऐसे शोज थे जिनके प्रसारण के वक्त यानी रविवार को सुबह सड़कों पर सन्नाटा सा छा जाता था. हालांकि उसी दौर में उपरोक्त धारावाहिकों की प्रसिद्धि के साथ-सथ चित्रहार (1982 में आरंभ) की अपनी एक अलग जगह थी, जो बाद में रंगोली (1988) और उसके बाद सुपरहिट मुकाबला (1993) में तब्दील हो गया था. सप्ताह में एक बार यानी रविवार की शाम को हिन्दी फिल्म दिखाई जाती थी, जिसके दीदार की खातिर संडे की शाम का खाना सांझ ढलने से पहले बनाने की एक मानो परंपरा सी बन गयी थी.

आज जेनरेशन जेड (1997 से 2012 के बीच जन्में) को यह बातें सुनने में बेशक अजीब लगती हों, लेकिन यह सच है कि जेनरेशन एक्स (1965 से 1980 के बीच जन्में) के लिए टीवी पर परोसी जाने वाली मनोरंजन की डोज, एक तरह से बड़ी स्क्रीन के सिनेमा का काम करती थी. अपने पसंदीदा प्रोग्राम के समय अगर किसी वजह से लाइट चली जाती थी, तो लोग बिजली दफ्तर का घेराव तक कर लेते थे. तो कुछ मान मनौव्वल करके काम निकलवा लेते थे. यही हाल क्रिकेट के प्रसारण के समय भी होता था. लेकिन नब्बे के दशक के मध्य तक आते-आते चीजें बदलने लगीं.

यह बदलाव कुछ ऐसा था जो एक दशक पहले सोप ओपेरा के आने के बाद शुरू था. सैटेलाइट चैनलों के आने से छतों पर लगे एंटीना गायब होने लगे और गलियों में काले रंग की केबल का जाल बिछने लगा. जहां देखों केबल ही केबल और दीवारों से लटकते बूस्टर. डीडी के जमाने में मनोरंजन के सीमित घंटे अब 24 घंटे नॉन -स्टॉप एंटरटेन्मेंट में तब्दील होने लगे थे. चैनल वी (1993) और एमटीवी (1996) ने चित्रहार के लिए सप्ताभर इंतजार करने की बंदिश समाप्त कर दी थी. इसी दौर में करीब 21 साल लगातार प्रसारण के बाद फूल खिले हैं गुलशन गुलशन भी बंद हो गया.

सन 1991 में आर्थिक सुधारों के फैसले के बाद टीवी की दुनिया में काफी तेजी से बदलाव होने लगे. इसी दौर में एक के बाद एक कई देसी-विदेशी चैनल्स आये, जिनमें जीटीवी, स्टार प्लस, एमटीवी, स्टार मूवीज, बीबीसी, प्राइम स्पोर्ट्स, सोनी वगैराह शामिल थे. दूरदर्शन का क्रेज कम होने लगा. तारा, सितारा, सांप-सीढ़ी, मैं भी डिटेक्टिव, अंताक्षरी, बूगी वूगी जैसे शोज के प्रति लोगों की दीवानगी बढ़ रही थी. सीएनएन, डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफी के आने तक चैनल्स का वर्गीकरण मनोरंजक चैनल्स (जीईसी), न्यूज चैनल्स (खबरिया चैनल्स) और स्पोर्ट्स चैनल्स के रूप में किया जाने लगा.

फिर नई सदी के आगमन के साथ एचबीओ और हिस्ट्री चैनल की एंट्री हुई. इसी दौर में खबरिया चैनलों की एक अलग जगह बनने लगी, जिनमें लोगों की रुचि लगभग मनोरंजक कार्यक्रमों जैसी ही रहती थी. साल 2005 तक चैनल्स की बाढ़ सी आ गयी. दर्शक क्या देखें क्या नहीं. प्रतिस्पर्धा का बाजार मध्यम वर्ग के सहारे था, जिसकी पसंद बीस सालों में दो बार बदल चुकी थी और तीसरे बदलाव की तैयारी कर रही थी, क्योंकि कतार में कंडीशनल एक्सेस सिस्टम (कैस) और डीटीएच (डायरेक्ट टू होम) थे.

दरअसल, साल 2001 में कंडीशनल एक्सेस सिस्टम (कैस) को केबल ऑपरेटरों की मनमानी को रोकने और प्रसारण की स्थानीय दिक्कतों को दुरुस्त करने सहित कई तरह की अनियमितताओं को दूर लिए लाया था. लेकिन इसके दो साल बाद ही डीटीएच लाया गया जो पूर्व में आ रही समस्याओं का ज्यादा बेहतर ढंग से निवारण कर सकता था. देश में सबसे पहले सेट टाप बाक्स में चेन्नई (2002) में लगाए गये.

जब सितारों की एक न चलती

टीवी की दास्तानें कभी न खत्म होने वाली हैं. चूंकि बातचीत की शुरूआत वर्ल्ड टीवी डे और तबस्सुम से हुई थी, सो अंत में चलते हैं कुछ भूली बिसरी यादों की तरफ. साल 2015 में तबस्सुम ने यू-ट्यूब पर तबस्सुम टॉकीज चैनल शुरू किया, जिसके साल लाख सब्सक्राइबर्स हैं. आप उनके पुराने वीडियोज देखेंगे तो पाएंगे कि इंटरव्यूज में आने वाले मेहमानों के साथ उनका एक करिश्माई सा कनेक्शन दिखेगा. वह मुस्कुराकर शो में आने का स्वागत करती हैं और तपाक से सवाल दाग देती हैं. मेहमान भी बड़े आराम से बैठा है, मानो लंच डिनर करके ही जाएगा.

इसकी गुंजाइश है कि आने वाला मेहमान उनके सामने सहज महसूस करता होगा, पर इससे ज्यादा शायद उनकी मौजूदगी से उन्हें यह भरोसा मिलता होगा कि वह किसी स्कूप का जवाब कम से कम यहां तो आराम से दे सकते हैं. एक पुराने वीडियो में वह अभिनेता अरुण गोविल (उनके पति विजय गोविल के भाई के) से पूछती हैं कि आपको स्टार तारिकाओं के साथ काम क्यों नहीं मिलता. यकीन मानिये, इस पर अरुण गोविल का जवाब तीरीखी स्टेटमेंट के लायक है.

एक अन्य शॉर्ट क्लिप में वह अभिनेत्री तनूजा से पूछती हैं कि आपने तो जितेन्द्र के साथ हीरोइन का रोल किया है, अब उनकी मां का रोल कर रही हैं, बताइये क्यों? यह सवाल पूछते समय उनकी आंखें और बैठने की मुद्रा गौर करने लायक है. और जवाब देते समय तनूजा की आंखों में टाल देने वाला भाव नहीं दिखता. एक अन्य क्लिप में वह अभिनेता जीवन से सवाल कर रही हैं कि मौजूदा समय में उनके अभिनय में मैनरिज्म कुछ ज्यादा है? यहां मुद्रा तो शिकायत की सी है, पर जीवन का जवाब बताता है कि एक एक्टर अपने बारे में दर्शकों को कुछ बताना चाहता है, न कि उन्हें प्रभावित करने की मंशा से बात इधर-उधर कर रहा है.

एक इंटरव्यू है, जो शायद उन्होंने परवीन बॉबी के घर पर किया होगा, खराब रिर्काडिंग के बावजूद ध्यान खींचता है. आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए… की गायिका नाजिया हसन, सांभा यानी मैक मोहन, शक्ति कपूर, के. एन. सिंह, से बाचतीत देखने पर पाएंगे कि उनको पसंद किए जाने की वजह केवल यही नहीं थी कि तब कोई अन्य विकल्प नहीं था बल्कि वह खुद थीं और उनका अंदाज था.

हालांकि उनके शो के बाद सिमी ग्रेवाल का टॉक शो रॉंदेवू (1997) भी काफी पॉपुलर हुआ और बाद में कॉफी विद करण को भी अच्छी खासी सफलता मिली. ऐसा कहा जा है कि तबस्समु की प्रसिद्धि की एक वजह यह भी थी कि वह बतौर बाल कलाकार फिल्मों में 1947 से सक्रिय थीं. इंडस्ट्री में सब उनसे परिचित रहे होंगे. जब उनका शो शुरू हुआ उससे पहले और बाद तक भी फिल्मों में उनकी सक्रियता बनी रही.

इसी के चलते वह शायद कुछ भी पूछ लेने में हिचकिचाती नहीं थीं. इसके अलावा उनका स्टाइल और पहनावा भी गजब होता था. गजब से मतलब कोई फैशनेब ड्रेस नहीं, बल्कि साड़ी, बालों में फूल, कानों में बड़े झुमके या बालियां, हाथों में चूड़ियां, माथे पर बिंदी और कभी-कभी शॉल भी ले लिया करती थीं. इस पर हिन्दी-उर्दू का मिला-जुला रस, वार्तालाप में चार चांद लगाने के लिए काफी होता था. एक सेलिब्रिटी टॉक शो की ऐसी एंकर न तो उनके रहते कोई दिखी और शायद आगे भी न दिख पाए.

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