Home Bihar Phanishwar Nath Renu : समय के साथ बदला रेणु का गांव, नहीं बदला आशियाना, आज भी विरासत को संभाल रखे हैं परिजन

Phanishwar Nath Renu : समय के साथ बदला रेणु का गांव, नहीं बदला आशियाना, आज भी विरासत को संभाल रखे हैं परिजन

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Phanishwar Nath Renu : समय के साथ बदला रेणु का गांव, नहीं बदला आशियाना, आज भी विरासत को संभाल रखे हैं परिजन

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राहुल कुमार ठाकुर, अररिया : यादों के साथ विरासत को संभाल कर रखना भी अलौकिकता से कम नहीं है। इस काम को वर्षों से सहेज और समेटकर रखा है साहित्य में नई विधा आंचलिकता का सृजन करने वाले विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु (Phanishwar Nath Renu) का परिवार। आंचलिक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु कुटिया (झोपड़ी) में बैठकर शब्दों को पिरोते थे। आज भी रेणु का वो कुटिया (Phanishwar Nath Renu Village) और उनके सामानों को विरासत के रूप में परिवार वाले सहेजकर रखे हुए हैं, जो दुनिया के शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। तभी तो रेणु की लेखनी से निकलने वाली आंचलिकता वाली मिट्टी की सौंधी खुशबू में शोधकर्ता, उनके गांव खींचे चले आते हैं। उस कुटिया में बैठकर और समय बिताकर, रेणु सहित उनकी लेखनी पर शोध करते हुए आंतरिक ऊर्जा का खुद में संचार पाते हैं।

रेणु की कुटिया आज भी बरकरार
समय के हिसाब से रेणु की रचना वाले उनके गांव और इलाके में बहुत कुछ बदल गया है। बहुत कुछ बदलने के कगार पर है। इन सबके बीच नहीं बदला तो रेणु की वो कुटिया। फूस और पुआल से बना आशियाने का छत तो बांस की टट्टी पर मिट्टी लपेटे दीवाल खड़ा है। आंचलिकता वाली ग्रामीण परिवेश की चरित्र चित्रण आज भी विद्यमान है। समय के अनुरूप छत पर नये खर (पुआल) चढ़ाये जाते हैं तो दीवाल से धूसरित हो जाती मिट्टी के लेप को भी नये लेप से समेट लिया जाता है। इस विरासत को बचाये रखने में स्वयं रेणु के पुत्र पद्म पराग राय वेणु,अपराजित राय अप्पू और दक्षिणेश्वर राय पप्पू के साथ उनकी बहुएं लगी रहती हैं।

बालूचर वाली जमीन पर अब पक्की सड़कें
रेणु के गांव औराही हिंगना में विकास की बयारें बही है। यातायात के रूप में रेलवे और सड़क मार्ग की भी सुविधाएं हैं। ‘परती परिकथा’ की बालूचर वाली भूमि पर पक्की सड़कें हो गयी है। भले वो मेंटेनेंस के अभाव में कई जगहों पर टूट गयी हो लेकिन सड़के पगडंडी वाली कम और पक्की ज्यादा हो गयी है। गांव से चंद किलोमीटर की दूरी से असम के सिलचर से गुजरात के पोरबंदर को जोड़ने वाली ईस्ट-वेस्ट कॉरिडोर की फोरलेन रोड भी गुजरी है। रोजाना हजारों छोटी-बड़ी गाड़ियां दौड़ती है। अब रेणु की रचना वाली बैलगाड़ी या टप्पर गाड़ी काफी कम हो गयी है। गांव में पंचलाइट का स्थान बिजली के बल्बों ने ले लिया है। गांव बिजली की रौशनी से चकाचौंध है। गांव में शिक्षा के लिए प्राइमरी, मिडल से लेकर हाई स्कूल तक आ गये हैं। वहीं चंद दूरी पर ही सिमराहा में रेणुजी के नाम से ही इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गया है। इन सबके बीच स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो वादा किया गया था, उसमें कमी जरूर है। सिमराहा में एपीएचसी जरूर खोला गया है, लेकिन वो भी चंद स्वास्थ्यकर्मियों के भरोसे। फलस्वरूप रेणु के गांव के लोग आज भी ग्रामीण चिकित्सकों के भरोसे अपना इलाज कराने को मजबूर हैं। विकास की बहती बयारों के बीच रेणु की वो कुटिया आज भी गांव में विद्यमान है और बदलते समय को टुक-टुक भरी निगाहों से निहार रहा है।

पद्मश्री अवार्ड को ‘पापश्री’ कहकर लौटाया

विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म पूर्णिया (वर्तमान में अररिया) जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को हुआ था। बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी गांव का ‘रेणुवा’ अपने साहित्यिक सृजन से विश्व क्षितिज पर पहुंच जाएगा और दुनिया उनकी रचना की कायल हो जाएगी, उस समय शायद ही कोई सोचा हो। लेकिन अन्याय के खिलाफ बचपन से लड़ाकू स्वभाव के रेणु ने अपनी साहित्य सृजन से सबों को कायल बना दिया। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गांव में करने के बाद मैट्रिक के लिए रेणुजी विराटनगर (नेपाल) चले गये और कोइराला परिवार में रहकर मैट्रिक की। इंटरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की। 1942 में वे स्वतंत्रता संग्राम में कूदे तो 1950 में नेपाल में राणाशाही के खिलाफ चल रहे नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन का भी हिस्सा बने। इतना ही आजादी के बाद आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लड़े गये छात्र आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। छात्र आंदोलन के दौरान पटना में निहत्थे छात्रों पर हुए लाठीचार्ज और पुलिसिया बर्बरता के विरोध में पद्मश्री अवार्ड को ‘पापश्री’ अवार्ड कहकर लौटा दिया था।
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फणीश्वर नाथ रेणु की यादगार रचनाएं
रेणु की लेखन शैली वर्णनात्मक थी। उनकी कहानियों और उपन्यासों में आंचलिक जीवन के हर धुन, गंध, लय, ताल, सुंदरता और कुरूपता विद्यमान है। उन्होंने उपन्यास मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस, दीर्घतपा, कितने चौराहे, कलंक मुक्ति, पलटू बाबू का रोड लिखा। कथा संग्रह के रूप में ठुमरी, एक आदिम रात्रि की महक, अग्निखोर, एक श्रावणी दोपहर की धूप, अच्छे आदमी के साथ रिपोर्ताज के रूप में ऋणजल-धनजल, नेपाली क्रांति कथा, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्वे की रचना की। उनकी प्रसिद्ध कहानियों में मारे गये गुलफाम, एक आदिम रात्रि की महक, लालपान की बेगम, पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस, संवदिया शामिल है।
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‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी ‘तीसरी कसम’ फिल्म

रेणु की रचना मारे गये गुलफाम पर तीसरी कसम नाम से राजकपूर और वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म बनी। इसका निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया था। मशहूर गीतकार शैलेन्द्र उसके निर्माता थे। राजकपूर हीरामन की भूमिका में था तो वहीदा रहमान हीराबाई की रोल में। हीरामन और हीराबाई के बीच पनपे प्यार की कसक और अलौकिक मिसाल वाली फिल्म है। ये हिन्दी फिल्म जगत में मील का पत्थर साबित हुआ। आज भी इसके गीत चाहे वो सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है…चलत मुसाफिर मोह लिया रे, पिंजरे वाली मुनिया…सजनवा बैरी हो गेल हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग्य न बांटे कोई…पान खाये सैयां हमार हो, भोली सुरतिया होठ लाल-लाल…दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई…लाली-लाली डोलिया में लाली रे चुनरिया, पियाजी की आई भोली भाली रे दुल्हनिया… आ आ भी जा, रात ढलने लगी, चांद छुपने चला…हाय गजब कहीं तारा टूटा, लूटा लूटा रे मेरे सैयां ने लूटा…मारे गये गुलफाम, अजी हां मारे गये गुलफाम…न केवल आनन्दित करता है, बल्कि मंत्रमुग्ध कर देता है।

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