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दूसरा और अंतिम चरण का मतदान 28 दिसंबर को।
– फोटो : अमर उजाला
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पटना में बुधवार को पहली बार सीधे वोटर अपना मेयर और डिप्टी मेयर चुनने के लिए वोट डालेंगे। यह दोनों पद महिलाओं के पास ही थे और 30 दिसंबर को रिजल्ट आने के बाद भी उन्हीं के पास रहेंगे। लेकिन, यह चुनाव कुछ अलग है। सबसे बड़ी बात यह है कि पटना के चारों भाजपा विधायक और दोनों भाजपाई सांसद खुल नहीं सके। चारों भाजपा विधायकों के क्षेत्र के बराबर मेयर और डिप्टी मेयर की पटना सीट है। संसदीय सीट के हिसाब से देखें तो पटना साहिब क्षेत्र के बड़े हिस्से के साथ पाटलिपुत्र सीट का भी अच्छा हिस्सा मेयर और डिप्टी मेयर को सीधे वोट करेगा। मतलब, ताकत के हिसाब से पटना की मेयर या डिप्टी मेयर सही मायने में पहली बार सीधे जनता के वोट से चार विधायकों की ताकत लेकर कुर्सी पर बैठेंगी। पटना की मेयर कौन होंगी और डिप्टी मेयर की कुर्सी पर कौन बैठेंगी, यह अंदाजा पार्षदों-विधायकों को भी नहीं है। असल लड़ाई मेयर की सीट पर है। डिप्टी मेयर की सीट को लेकर उदासीनता नामांकन के समय भी थी और प्रचार के अंत तक भी बहुत उत्साह नहीं था। ऐसे में, ‘अमर उजाला’ ने इस रोचक मुकाबले का गणित समझने के लिए चाणक्या स्कूल ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च से जुड़े तीन एक्सपर्ट की मदद ली तो सामने आया कि तीन तरह के मैनेजमेंट में सफलता का प्रतिशत ही परिणाम बता देगा।
पोलिंग बूथ मैनेजमेंट
जानिए किन तीन प्रत्याशियों के पास यह ताकत ज्यादा
पटना के चार विधानसभा क्षेत्रों को मिलाकर पटना नगर निगम के मुख्य पार्षद को कुल 75 वार्डों से वोट हासिल करना है। इस बार के चुनाव में सबसे बड़ा टास्क यही है। मतदान के लिए करीब 1900 वोटिंग बूथ हैं। एक बूथ के वोटरों को पर्ची पहुंचाने और बूथ पर प्रत्याशी के लिए ड्यूटी निभाने वालों पर बहुत कम भी खर्च हो तो राशि 10 हजार रुपये तक होगी। इस हिसाब से करीब दो करोड़ का खर्च है। इसमें कितनी भी कटौती की जाए तो एक करोड़ रुपये में कोई शक नहींक है। जबकि, 30 लाख रुपए कुल खर्च की ही अनुमति है। इस खर्च को घटाने के दो रास्ते हैं। एक तो यह कि मेयर पद पर लड़ने वाली प्रत्याशी डिप्टी मेयर प्रत्याशी के साथ समझौता करें और राशि बांटकर खर्च करें। आर्थिक रूप से संपन्न एक मेयर प्रत्याशी ने यह फॉर्मूला अपनाया भी है और डिप्टी मेयर के लिए एक प्रत्याशी से मदद की लेन-देन भी की है। दूसरा रास्ता है, पार्षदों की मदद लेना। यह मदद मूलत: दो प्रत्याशियों के लिए ही संभव है- एक के पास मजबूत कुर्सी का अनुभव है तो दूसरी के पास सर्वश्रेष्ठ वार्ड का प्रमाणपत्र। दोनों आर्थिक मोर्चे पर मजबूत हैं और काम करने-करवाने में भी निपुण, इसलिए पोलिंग बूथ मैनेजमेंट में यह दो ज्यादा प्रभावी हैं। बाकी तीन प्रत्याशी आर्थिक रूप से संपन्न हैं, लेकिन बूथ मैनेजमेंट का वैसा अनुभव नहीं होने का फायदा उन्हें मिलने की संभावना बहुत कम है। इसके अलावा, एक प्रत्याशी ऐसी भी हैं जिनके पति के पास पटना को चलाने वाली मजबूत कुर्सी का अनुभव भी है और पैसा भी। इनसे संभव तो है, लेकिन इनके लिए यह आसान नहीं। आसान इसलिए नहीं, क्योंकि कुर्सी से उतरे काफी वक्त गुजर गया है और माहौल-समीकरण भी बदल चुका है।
धर्म-जाति मैनेजमेंट
जातियों के बंटने के कारण सबसे मजबूत जाति भी कमजोर
मेयर के इस चुनाव में 31 प्रत्याशी हिंदू हैं, जबकि दो मुसलमान। चुनाव चूंकि दलगत नहीं है, इसलिए धर्म और जाति बहुत ज्यादा मायने रख रहे हैं। दो मुसलमान प्रत्याशियों में से एक के पक्ष में इस धर्म के ज्यादातर वोटर हैं। मुसलमान बहुल क्षेत्रों में सोमवार से मंगलवार के बीच तय हो गया है कि वोट एक को ही देना है। छिटपुट दूसरे को मिल जाए, इस बात की संभावना खत्म करने का प्रयास हो रहा है। दूसरी तरफ, 31 हिंदू प्रत्याशियों का गणित बहुत अनूठा है। लोकसभा, विधानसभा की तरह मेयर और डिप्टी मेयर चुनाव में भी यह सीट कायस्थ बहुल है। पटना शहरी के दोनों सीटों पर कायस्थ विधायक हैं। माना जाता है कि वोटरों में 32-35 प्रतिशत इनकी आबादी है। इस जाति की एक प्रत्याशी ने जाति की गोलबंदी ठीक से कर ली है। इसके बाद वोटरों में करीब 15 प्रतिशत वैश्य समाज से हैं। यह समाज एकमुश्त अपनी जाति की सबसे मजबूत प्रत्याशी के साथ खड़ा है। इस वोट के छिटकने के आसार नहीं हैं। जबकि, प्रत्याशी कई हैं और सत्ता से जुड़ी प्रत्याशी ने भी दांव लगा रखा है। इसके बाद बड़े जातिगत वोटर समूहों में चंद्रवंशी और कुशवाहा मायने रखते हैं। इनका वोट 10-10 प्रतिशत के आसपास है। आधा दर्जन से ज्यादा चंद्रवंशी पार्षद निवर्तमान हैं और वैश्य समाज पर एकाधिकार जमा रहीं प्रत्याशी ने डिप्टी मेयर पर एक चंद्रवंशी प्रत्याशी का साथ देकर इस जाति के वोटर को समेटने की अंतिम कोशिश कर ली है। कुशवाहा समाज अभी उधेड़बुन में है, लेकिन वैश्य के भी करीब हैं और मुसलमान प्रत्याशी से भी दूर नहीं। मतलब, हिदुओं में जातिगत आधार पर अगर दो प्रत्याशियों से ज्यादा के बीच वोट बंटे तो 12-13 प्रतिशत मुसलमान वोटरों के साथ पुराने माहिर खिलाड़ी को फायदा उठाने का मौका मिल सकता है। इस माहिर खिलाड़ी को एम-वाई समीकरण के तहत मेयर की सीट पर ही लड़ रहीं एक यादव प्रत्याशी का अंतिम समय में समर्थन मिल जाए, यह संभव है। यही कारण है कि मतदान से एक-दो दिन पहले एक मजबूत प्रत्याशी ने जातिगत आधार पर बंटवारे को खत्म कर धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण की मुहिम चलाते हुए अलग-अलग तरह के मैसेज वायरल कराए। हालांकि, दूसरी तरफ सबसे ज्यादा प्रभावी जाति की प्रत्याशी ने अपनी जाति के हाथ यह शक्तिशाली सीट लाने की मार्मिक अपील भी की। राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण समेत अगड़ी जातियों का वोट तीन-चार जगह बंटना तय माना जा रहा है, क्योंकि इन जातियों से भी कई सक्रिय चेहरे चुनाव में हैं।
पॉलिटिकल मैनेजमेंट
किसके सगे हैं भाजपा के विधायक-सांसद, यह बताएगा परिणाम
पटना में चारों विधायक और दोनों सांसद भाजपाई हैं। इनकी राजनीति काफी हद तक मेयर चुनाव के परिणाम पर निर्भर करेगी, इसलिए सारे फूंक-फूंक कर कदम उठा रहे हैं। पटना के दोनों कायस्थ विधायकों नितिन नवीन व अरुण कुमार सिन्हा और पटना साहिब के सांसद रविशंकर प्रसाद ने अपनी जाति की प्रत्याशी को मन से आश्वासन नहीं दिया है। पटना सिटी के विधायक नंद किशोर यादव पूरी तरह से अपने क्षेत्र की बाशिंदा प्रत्याशी के लिए मेहनत कर रहे हैं। दीघा के विधायक संजीव चौरसिया ने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन वह भी अपनी पुरानी साथी के साथ हैं। बचे भाजपा के पाटलिपुत्र विधायक रामकृपाल यादव, तो वह जाति नहीं, बल्कि संगठन के हिसाब से आंतरिक समर्थन दे सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि राजनीतिक आधार पर देखें तो भाजपा बनाम भाजपा की लड़ाई के कारण भाजपा के चारों विधायक और दोनों सांसद सीधे मुंह किसी का साथ देने की बात नहीं कह रहे। एक और बात यह है कि किसी को सही मायने में पता नहीं चल रहा है कि मेयर या डिप्टी मेयर बन कौन रही हैं। ऐसे में कोई किसी के साथ ईमान से खड़ा होकर आगे का बिगाड़ नहीं चाह रहा है।
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