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Nitish Kumar Vs Upendra Kushwaha: नीतीश कुमार की पलटी मार पालिटिक्स अब सभी समझने लगे हैं। जो उनके दुर्दिन में साथी बनता है या उनको ऊंचा उठाने की सीढ़ी साबित होता है, झटके में नीतीश उसे किनारे करने से तनिक भी संकोच नहीं करते। जार्ज फर्नांडीस, शरद यादव, आरसीपी के बाद उपेंद्र कुशवाहा भी अब इसी कतार में हैं
जेडीयू के संस्थापक शरद को भी किनारे किया था नीतीश ने
नीतीश कुमार ने जेडीयू के संस्थापक शरद यादव को भी किनारे लगाने में देर नहीं लगी थी। समाजवाद की उपज लालू के हाथ जब बिहार की बागडोर आयी तो उन्होंने समाजवादी मूल्यों को दरकिनार कर करप्शन के सारे दरवाजे खोल दिये थे। उस वक्त शरद यादव ने नीतीश को आगे कर जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) का गठन किया था। शरद ने ही नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोला और इसका परिणाम यह हुआ कि 2005 में नीतीश कुमार को बिहार की कमान मिली। नीतीश के राजनीतिक करियर का यह माइल स्टोन था, क्योंकि 1995 की चुनावी हार के बाद उन्होंने राजनीतिक संन्यास का निर्णय कर लिया था। लेकिन नीतीश को शरद यादव के अहसान को भूलते देर नहीं लगी। शरद यादव के निधन के बाद इन दिनों बिहार की राजनीति में चर्चा का केंद्र बने उपेंद्र कुशवाहा के इस ट्वीट से समझा जा सकता है, जो उन्होंने शरद के निधन के बाद किया था। उपेंद्र कुशवाहा ने ट्वीट किया था- शरद जी जैसी मौत भगवान किसी को न दे। अंतिम समय उनको अपनों ने भी छोड़ दिया। वो लोग आज-आज बड़े-बड़े पदों पर बैठे हैं।
जार्ज फर्नांडीस का साथ भी नहीं संभाल पाये नीतीश कुमार
जार्ज फर्नांडीस ने नीतीश कुमार को स्थापित करने के लिए जो किया, उसे भी भुलाने में नीतीश कुमार नहीं हिचके थे। 1995 तक लालू प्रसाद यादव के बारे में यह बात बिहार में मान ली गयी थी कि जब तक समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार में लालू रहेगा। लालू राज के तीसरे ही साल जॉर्ज फर्नांडीस ने उन्हें सत्ता से बेदखल करने की बात कही थी। हालांकि 1995 के असेंबली इलेक्शन में जार्ज की समता पार्टी 7 सीटों पर ही सिमट गई थी। जॉर्ज ने हार नहीं मानी। उन्होंने नई रणनीति बनाई। बीजेपी से हाथ मिलाया। साल 2000 से ही लालू यादव को समता पार्टी ने चुनौती देनी शुरू की। इसका फल यह रहा कि पहली बार सिर्फ सात दिनों के लिए ही सही, नीतीश कुमार बिहार के सीएम बन गये। यह नीतीश का हासिल नहीं था, बल्कि जॉर्ज फर्नांडीस की रणनीति का कमाल था। जार्ज ने जनता दल के 14 सांसदों को जुटा कर पहले जनता दल में विभाजन कराया। इस तरह जनता दल जॉर्ज बना। बाद में जनता दल जार्ज ने ही समता पार्टी का आकार लिया। जार्ज ने समता पार्टी में नीतीश कुमार को आगे रखा। नीतीश अगर 17 साल से सीएम बने हुए हैं तो उन्हें स्वीकारना होगा कि उनका सफर जॉर्ज के बिना संभव नहीं था।
आरसीपी भी को बुला कर ऊंचा उठाया, फिर पटकनी दे दी
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपने स्वजातीय रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह के नाम से प्रचलित) को तो नीतीश खुद लेकर आये। उन्हें वीआरएस दिला कर नीतीश ने 2010 में जेडीयू ज्वाइन कराया और राज्यसभा भेज दिया। फिर उन्हें पार्टी का महासचिव और अंत में राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी तक नीतीश ने पहुंचाया। बिहार के सियासी जगत में यह माना जाता था कि आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार की जोड़ी अटूट है। लेकिन दो बार राज्यसभा जा चुके आरसीपी को नीतीश ने आगे कोई जगह नहीं दी। आरसीपी से अध्यक्ष का पद भी ले लिया गया। उस जगह राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को नीतीश ने बिठा दिया। आरसीपी आज सियासत के बियावान में भटक रहे हैं। उन्हें पार्टी से निकालने का तरीका भी काफी अपमानजनक रहा। कभी हर छोटे-बड़े फैसले के लिए नीतीश कुमार को आरसीपी की जरूरत होती थी, लेकिन उन्हें पार्टी से निकालने का आधार बना किसी कार्यकर्ता का पत्र, जिसमें आरसीपी की संपत्ति बेहिसाब बढ़ने का आरोप था।
अब उपेंद्र कुशवाहा पर नीतीश कुमार ने तरेरी हैं आंखें
नीतीश कुमार ने अब अपनी पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा पर आंखें तरेर दी हैं। हफ्ते भर के अंदर उन्हें भी नीतीश कुमार ठिकाने लगा दें तो कोई आश्चर्य नहीं। ये वही उपेंद्र कुशवाहा हैं, जो आखिरी बार जेडीयू में अपनी पार्टी का विलय कर पहुंचे तो उनके स्वागत में बैंड-बाजा बजा। नीतीश उनकी अगवानी के लिए खुद इंतजार कर रहे थे। नीतीश के लिए अब वही उपेंद्र कुशवाहा आंखों की किरकिरी बन गये हैं। महागठबंधन में जेडीयू के शामिल होने के बाद कुशवाहा लगातार कहते रहे हैं कि पार्टी कमजोर हो रही है। नीतीश कुमार पर जब आरजेडी के दो विधायकों ने उल्टी-सीधी टिप्पणी शुरू की तो कुशवाहा उनके खिलाफ मुखर हुए। वे आज भी दोहरा रहे हैं कि पार्टी लगातार कमजोर हो रही है। नीतीश के खिलाफ महागठबंधन के लोग अनापशनाप बोल रहे हैं। हम अपने नेता के खिलाफ इस तरह की बात बर्दाश्त नहीं करेंगे। अपने नेता के प्रति आस्था का कुशवाहा का यह नुस्खा भी कारगर नहीं हो रहा है। नीतीश ने साफ कह दिया है कि ‘उन्हें जहां जाना है, जायें। जो बोलना है, बोलें। हम इसका नोटिस नहीं लेते।’
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