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चिराग ने 2020 में नीतीश का घटा दी सीटें
चिराग पासवान 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव से लाइम लाइट में आए थे। चिराग ने बीजेपी को तो बख्श दिया था, लेकिन जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार दिये थे। नतीजा हुआ कि जेडीयू को अपनी 41 सीटें गंवानी पड़ी। इसका फायदा बीजेपी को तो नहीं हुआ, लेकिन महागठबंधन के उम्मीदवारों ने बाजी मार ली थी। चिराग पासवान ने न सिर्फ बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी देने से परहेज किया, बल्कि बीजेपी के उन नेताओं को टिकट भी दिये, जो पार्टी से टिकट न मिलने पर बागी हो गये थे। नीतीश उस टीस से अब तक उबर नहीं सके हैं। चिराग को जब भी मौका मिला, उन्होंने नीतीश को केंद्र कर उनकी सरकार के खिलाफ बोलने से कभी परहेज नहीं किया। यह अलग बात है कि बीजेपी से सटने का उन्हें कोई लाभ अब नहीं मिला है, लेकिन उनका एकतरफा प्रेम बीजेपी से बना हुआ है।
नीतीश ने लोजपा तोड़ चिराग से लिया बदला
नीतीश कुमार भी कम खिलाड़ी नहीं हैं। उन्होंने चिराग से इसका बदला लोजपा में विभाजन करा कर लिया। चिराग के चाचा ने अलग गुट बनाया तो इसके पीछे नीतीश कुमार का दिमाग माना जाता है। लोजपा में विभाजन के बाद सबसे बड़े गुट के नेता पशुपति पारस बन गये। इसका लाभ उन्हें मिला केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में। चिराग पासवान ताकते रह गये। इतना ही नहीं, चिराग पासवान वर्षों से अपने पिता के कब्जे में रहे बंगला को भी नहीं बचा सके थे। इसके बावजूद चिराग ने बीजेपी के प्रति अपनी निष्ठा बनाये रखी।
अब यह चर्चा हो रही है कि शायद नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार में चिराग को भी जगह दी जा सकती है। दरअसल नीतीश कुमार का चिराग के प्रति गुस्सा इसलिए था कि उन्हें सीएम की कुर्सी से बेदखल करने के लिए चिराग ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लोजपा को नीतीश ने एनडीए से अलग भी करा दिया था। चिराग अगर एनडीए में रह कर विधानसभा का चुनाव लड़े होते तो नीतीश की पार्टी जेडीयू को 3 सीटों पर सिमटना नहीं पड़ता। अगर चिराग ने अलग राह नहीं पकड़ी होती तो बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को 170 सीटें आतीं।
नीतीश की मुश्किलें बढ़ाने में जुटे कुशवाहा
उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी ही पार्टी में बगावत का बिगुल फूंक दिया है। इस तरह वे जेडीयू के साथ आरजेडी पर हमलावर हुए हैं, उससे साफ है कि वे बीजेपी के स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हैं। बीजेपी बिहार में जेडीयू और आरजेडी दोनों को अपना दुश्मन मानती है। कुशवाहा उसका काम आसान कर रहे हैं। यह अलग बात है कि कुशवाहा को जेडीयू अब भाव ही नहीं दे रहा। उनकी भी अग्निपरीक्षा है कि वे लव-कुश समीकरण को अपने पक्ष में कितना कर पाते हैं। कुशवाहा के लिए दूसरा खतरा यह है कि जिस तरह बीजेपी से एकतरफा प्रेम के बावजूद चिराग पासवान को अब तक बीजेपी ने कोई भाव नहीं दिया, कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो जाये। हालांकि अगले साल होने जा रहे लोकसभा के चुनाव के कारण इसका खतरा कम है। बीजेपी को भी यह पता है कि दो चुनावों में जिस तरह उसका सितारा बुलंद था, इस बार ऐसी संभावना नहीं दिख रही है। इसलिए बीजेपी ने इस बार छोटे और क्षेत्रीय दलों से तालमेल की योजना बनायी है। बिहार में बीजेपी का सबसे भरोसेमंद सहयोगी हाल तक जेडीयू रहा है, लेकिन अब उसे मनाने या रिझाने के बजाय बीजेपी दूसरे सहयोगियों को लेकर नीतीश को पाठ पढ़ाना चाहती है।
नीतीश कुमार के सामने कुशवाहा-चिराग बड़ी चुनौती
पहले नीतीश कुमार के सामने सिर्फ चिराग पासवान चुनौती बने हुए थे। अब तो उपेंद्र कुशवाहा भी चुनौती खड़ी कर रहे हैं। नीतीश कुमार को तीसरी चुनौती मिलेगी महागठबंधन के बड़े घटक दल आरजेडी से। चिराग और कुशवाहा तो प्रत्यक्ष तौर पर जेडीयू का वोट काटेंगे, आरजेडी के वोट जेडीयू को ट्रांसफर होंगे या नहीं, इसमें भी संदेह है। आरजेडी के लोग नीतीश की पाला बदल की नीति से ऊब गये हैं। 2017 के घाव को अब तक आरजेडी के लोग नहीं भूले हैं। कुढ़नी उपचुनाव इसका उदाहरण है। जेडीयू का उम्मीदवार इसलिए हार गया, क्योंकि आरजेडी का वोट ट्रांसफर नहीं हो पाया। इसकी पुनरावृत्ति 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनाव में दिख जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। (रिपोर्ट- ओमप्रकाश अश्क)
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