बिहार के दिग्गज कांग्रेस नेता बुद्धदेव सिंह के बेटे कुणाल को एक बार किसी रंगमंच निर्देशक ने कह दिया कि अभिनय तुम्हारे बस की बात नहीं। बात दिल को लगी और वह आ गए मुंबई। कुणाल सिंह ने भोजपुरी सिनेमा का वह दौर देखा है जब उनकी फिल्में सिनेमाघरों में 75 हफ्ते (प्लैटिनम जुबली) तक चली है। उनकी कई फिल्मों ने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली (25 हफ्ते) और गोल्डन जुबली (50 हफ्ते) भी मनाई। भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में उनके नाम कई रिकॉर्ड दर्ज हैं। दो दशक के अंतराल के बाद फिर से सिनेमा में सक्रिय हुए कुणाल सिंह से एक खास मुलाकात।
रेडियो और रंगमंच के बाद सिनेमा में पहला ब्रेक आपको कैसे मिला?
ये बात दिसंबर 1977 की है। जिद थी कि अभिनय ही करना है। पिताजी बिहार सरकार में मंत्री थे। घर परिवार के तमाम लोग डॉक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर थे। मुझे कुछ अलग करना था। दिग्गज निर्देशक मृणाल सेन के मुख्य सहायक निर्देशक गिरीश रंजन ने फिल्म ‘कल हमारा है’ से निर्देशन की शुरुआत की और यही मेरी पहली फिल्म है। इस फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई तो निर्माता अशोक जैन ने मुझे भोजपुरी फिल्म ‘धरती मैया’ में मौका दिया। मोहनजी प्रसाद की फिल्म ‘हमार भौजी’ में काम दिया वह भी सिल्वर जुबली रही और फिर आई अशोक जैन के साथ मेरी दूसरी फिल्म ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ जो वाराणसी के कन्हैया कलाचित्र मंदिर में लगातार एक साल चार महीने तक चलती रही। मुंबई की जिस मिनर्वा टाकीज में ‘शोले’ लगी थी, वहां भी ये फिल्म लगातार पांच हफ्ते चली।
फिल्म ‘बिहारी बाबू’ में आपको शत्रुघ्न सिन्हा के साथ काम करने का मौका मिला और उन्हीं के खिलाफ आप चुनाव में भी उतरे?
फिल्म ‘धरती मैया’ के बाद शत्रु भैया के साथ भोजपुरी फिल्म ‘बिहारी बाबू’ 1985 में रिलीज हुई थी। राजनीति मुझे विरासत में मिली है और इसकी प्रतिबद्धता के चलते ही मुझे उनके खिलाफ चुनाव लड़ना पड़ा। शत्रु भैया बहुत प्यारे इंसान है। मुझे बहुत स्नेह करते हैं। मैं भी उनका बहुत सम्मान करता हूं। चुनाव के चलते हमारे संबंधों पर कोई असर नहीं हुआ। वह बहुत ही जिंदादिल इंसान हैं।
और, पद्मा खन्ना?
भोजपुरी सिनेमा के जो जन्मदाता कहे जाते हैं, ऐसे कलाकारों मसलन नजीर हुसैन, सुजीत कुमार, पद्मा खन्ना, चित्रगुप्त और रामायण तिवारी के साथ मुझे काम करने का मौका मिला, ये मेरा सौभाग्य है। पद्मा खन्ना ने मुझे सबसे ज्यादा स्नेह दिया। मेरी हर फिल्म में वह या तो मां या भाभी मां के किरदार में रही हैं। सुजीत कुमार और पद्मा खन्ना को देखकर ही मैंने अभिनय सीखा। अफसोस यही है कि भोजपुरी सिनेमा को ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाली पदमा खन्ना अब खुद भोजपुरी सिनेमा से दूर हैं।
बिहार से सिनेमा में इतने बड़े बड़े दिग्गज आते गए लेकिन इसी के साथ भोजपुरी सिनेमा की हालत भी लगातार खराब होती गई, ऐसा क्यों?
हमारी पहचान, हमारे रीति रिवाज, हमारी संस्कृति और हमारे संस्कार, ये सब भोजपुरी सिनेमा से गायब हो गया है। किसी भी क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा की तरक्की तभी हो सकती है जब वह बोली या भाषा बोलने वाली महिलाएं वे फिल्में देखने आएं। जिसे देखने महिलाएं नहीं आएंगी, ऐसा सिनेमा कभी सफल नहीं होगा। भोजपुरी सिनेमा से महिलाएं 90 के दशक में दूर होना शुरू हुईं जब वहां महिलाओं का घर से निकलना दूभर हो गया। दर्शकों का एक छिछोरा समूह विकसित हुआ और निर्माताओँ को लगा कि भोजपुरी के यही नए दर्शक हैं। अश्लील गीत, अश्लील संवाद और अश्लील दृश्य भोजपुरी सिनेमा में आने लगे। इसी ने भोजपुरी सिनेमा को खराब कर दिया।