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‘जात की बात’ क्यों?
नीतीश कुमार और लालू यादव का इस पर तर्क है कि जातीय जनगणना के बाद वर्तमान स्थिति में किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी क्या हालत है, ये स्पष्ट हो जाएगा। इससे आरक्षण का लाभ देने में भी सहूलियत होगी। वहीं केंद्र में सत्ताधारी पार्टी बार-बार सरदार वल्लभ भाई पटेल के उस बयान का हवाला देती है जिसमें उन्होंने 1952 में स्पष्ट तौर पर देश का गृहमंत्री रहते हुए संसद में कहा था कि ‘अगर हम जातीय जनगणना करते हैं तो देश का सामाजिक तानाबाना टूट जाएगा।’ यही कारण है कि बाद में भी सामाजिक-आर्थिक गणना होने के बाद भी उसे सार्वजनिक या फिर प्रकाशित नहीं किया गया।’
जातीय जनगणना के फायदे
जातीय जनगणना की बात करें तो इससे फायदे जरूर हैं। इन फायदों की बात बारी-बारी से करते हैं।
1-नए आंकड़े देंगे स्पष्ट जानकारी- अभी के दौर में बिहार में अलग-अलग जातियां अपनी तादाद को करीब-करीब कहकर बताती हैं। जैसे यादव करीब 16 फीसदी हैं तो ब्राह्मण तकरीबन 6 फीसदी और फलां जातियां इतनी। लेकिन इस जनगणना के बाद तस्वीर एकदम साफ हो जाएगी। करीब-करीब का फासला बिल्कुल ही खत्म हो जाएगा।
2- हर 10 साल की जनगणना में जाति शामिल नहीं- देश में हर एक दशक यानि 10 साल में एक बार जनगणना कराई जाती है। इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की गिनती होती है, लेकिन पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की गिनती के आंकड़े जारी नहीं किए जाते हैं। जातीय जनगणना से सरकार को विकास की योजनाओं का खाका खींचने में मदद मिलती है। यूं समझिए ये भी विकास का एक पैमाना ही है। लेकिन इसमें जाति के शामिल न होने से कई बार दिक्कतें भी सामने आती हैं। खासतौर पर बिहार में जहां जाति ही सबकुछ है। इस जनगणना से बिहार में विकास का ये पैमाना दुरुस्त हो जाएगा।
3-आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थित का जायजा- जातीय जनगणना के बाद ये भी साफ हो सकता है कि कौन सी जाति आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ी हुई है। ऐसे में उन जातियों तक इसका सीधा लाभ पहुंचाने के लिए नए सिरे से योजनाएं बनाई जा सकती हैं। उन जातियों को समाज में उचित जगह दिलाने की कोशिश में ये जनगणना मददगार साबित होगी।
जातीय जनगणना के नुकसान
जाहिर है कि अगर किसी चीज का फायदा होता है तो उसके नुकसान भी। यूं ही थोड़े कहा गया है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक इसी तरह से अगर जातीय जनगणना के फायदे हैं तो नुकसान भी। समझिए कैसे
1- राजनीतिक दलों की वोट बैंक बनकर रह जाएंगी जातियां- एक बार ये जनगणना आ जाएगी तो वो जातियां जो आजादी के दशकों बाद और 1931 की जनगणना के बाद अब पिछड़ी हुई पाई जाएंगी, वो राजनीतिक दलों के सीधे टार्गेट पर होंगी। यूं कहिए कि वोट बैंक, ऐसे में करीब-करीब सभी दल सिर्फ उसी वोट बैंक को हासिल करने की होड़ में लग जाएंगे। परिणाम ये होगा कि समावेशी यानि सबके विकास की अवधारणा को गहरी चोट पहुंचेगी। क्योंकि तब सामाजिक तराजू के पलड़े का बैलेंस बिगड़ने की स्थिति भी बन सकती है।
2- परिवार नियोजन कार्यक्रम को भी नुकसान की आशंका- जातीय जनगणना के बाद अगर किसी जाति या समाज को पता चला कि उनकी तादाद कम है, तो वो अपनी जनसंख्या बढ़ाने की होड़ में लग सकती हैं। जाहिर है कि इसका सीधा असर परिवार नियोजन कार्यक्रम पर पड़ेगा और जनसंख्या को काबू में रखने की कवायद को झटका लग सकता है। 1952 में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसी संदर्भ को भी जोड़ा था और सामाजिक तानाबाना टूटने की आशंका जाहिर की थी।
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