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सार
राजद नेता डॉक्टर नवल किशोर ने अमर उजाला को बताया कि इस मुद्दे को केवल जातीय राजनीति के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। जब सभी जातियों की संख्या की सटीक जानकारी होगी तो उन्हें योजनाओं का लाभ देने में ज्यादा पारदर्शिता रखी जा सकेगी…
नीतीश, तेजस्वी और तेजप्रताप यादव
– फोटो : Agency (File Photo)
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विस्तार
नीतीश कुमार ने 27 मई को बिहार के सभी राजनीतिक दलों की एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इस बैठक में राज्य में जातिगत जनगणना कराने पर सभी दलों के बीच एक आम सहमति पाने की कोशिश की जा सकती है। इसके पहले कांग्रेस ने भी अपने उदयपुर चिंतन शिविर में देश में जातिगत जनगणना कराने का मुद्दा उठाया था। 2014 के बाद से ज्यादातर अवसरों पर भाजपा का विजयी रथ रोकने में नाकाम रहा विपक्ष इस हथियार के सहारे 2024 में उसे रोकने की रणनीति बना रहा है। क्या विपक्ष जातिगत जनगणना के मुद्दे के सहारे भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दे के सामने एक बड़ा नैरेटिव स्थापित करने में सफल हो पायेगा?
केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर पहले ही अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय में दिए एक स्पष्टीकरण में उसने देश में जातिगत जनगणना कराने पर असमर्थता जताई थी। लेकिन इसके पूर्व भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे जैसे लोग देश में जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में बात करते रहे थे। लिहाजा विपक्ष को लगता है कि इस मुद्दे पर भाजपा को एक असमंजस की स्थिति में डालते हुए उसे घेरा जा सकता है। भाजपा की राज्य इकाइयों के सामने एक राह चुनना कठिन होगा जिसका विपक्ष को लाभ हो सकता है।
यहां जातिगत मुद्दा नहीं आया काम
यूपी-उत्तराखंड सहित हाल ही में सम्पन्न पांच राज्यों के चुनाव में भी विपक्ष ने इसी मुद्दे को भुनाने की कोशिश की थी। यूपी में अखिलेश यादव जातिगत गठजोड़ के सहारे ही मोदी-योगी के चुनावी अभियान को चुनौती देते हुए नजर आए थे। शुरुआती दौर में अच्छी बढ़त के बाद भी उनका चुनावी अभियान कमजोर पड़ गया और मत प्रतिशत के मामले में अच्छी बढ़त के बाद भी उन्हें असफलता हाथ लगी। जबकि भाजपा अपने आजमाए हुए ‘हिंदूवादी राष्ट्रवाद’ मुद्दे के सहारे यूपी सहित चार राज्यों में एतिहासिक जीत हासिल करने में कामयाब रही।
मुद्दों पर मिली राजद को सफलता
इसके पहले बिहार विधानसभा के चुनाव में राजद नेता तेजस्वी यादव ने भी कई दलों के जातिगत गठजोड़ से बेहतरीन चुनाव लड़ा। लेकिन उन्होंने अपने चुनावी अभियान में जाति को प्रमुखता के साथ नहीं उठाया। उन्होंने अपने चुनावी अभियान में राज्य की बदहाली, कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था, युवाओं में बेरोजगारी को सबसे ऊपर रखा। इन्हीं मुद्दों के सहारे उन्होंने भाजपा-जदयू को बांधकर रखने में सफलता प्राप्त की और राज्य में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। हालांकि, इसके बाद भी सत्ता से दूर रह गए तेजस्वी यादव एक बार फिर जातिगत जनगणना पर ही दांव लगा रहे हैं। राजद नेता डॉक्टर नवल किशोर ने अमर उजाला को बताया कि इस मुद्दे को केवल जातीय राजनीति के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। जब सभी जातियों की संख्या की सटीक जानकारी होगी तो उन्हें योजनाओं का लाभ देने में ज्यादा पारदर्शिता रखी जा सकेगी। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस मुद्दे के जरिए राजद उस अंतर को पाटना चाहती है जिससे वह सत्ता से दूर रह गई थी।
कांग्रेस को दिख रही संजीवनी
वहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव से लगातार नीचे जाती दिख रही कांग्रेस को भी एक मजबूत मुद्दे की तलाश है। वह कोई ऐसा मुद्दा तलाश रही है जिसके सहारे वह पीएम मोदी को घेर सके। उदयपुर चिंतन शिविर में जातिगत जनगणना के मुद्दे पर मुखर हुई आवाज सुनकर लगता है कि उसे यह अवसर जातिगत जनगणना के रूप में ही दिखाई दे रहा है। पार्टी को अनुमान है कि इससे उसका खोया हुआ ओबीसी-दलित मतदाता उसके पास वापस आ सकता है। हालांकि, इसी मुद्दे पर ज्यादा प्रखर राजनीति करने वाले दलों के बीच कांग्रेस को इसका लाभ कितना मिल पायेगा, कहा नहीं जा सकता। उल्टे उच्च जाति के वोटरों की नाराजगी होने पर कांग्रेस को इसका राजनीतिक नुकसान भी हो सकता है।
भाजपा ने खींची बड़ी लकीर
राजनीतिक विश्लेषक सुनील पांडे ने अमर उजाला से कहा कि मंडलवादी राजनीति में सपा, बसपा, आरजेडी जैसे दलों ने जातीय कार्ड खेलकर अच्छी बढ़त हासिल की। वे मजबूती के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे। लेकिन सत्ता को उन्होंने इन पिछड़े जातीय वर्गों को मजबूत करने का माध्यम नहीं बनाया। जनता के बीच यही संदेश गया कि सपा और आरजेडी की जीत केवल यादव जाति को मजबूत करने का साधन बन गई तो बसपा की जीत का लाभ केवल जाटवों की मजबूती तक सिमट कर रह गया। भाजपा ने इन दलों की कमजोरी का लाभ उठाया और इन वर्गों को अपने साथ जोड़ा। उसने उन्हें न केवल राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दी, बल्कि सांगठनिक स्तर पर भी इनकी भूमिका बढ़ाई। यह भागीदारी पूरी रणनीति के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल से लेकर यूपी-एमपी के राज्य स्तरीय मंत्रिमंडल में भी मजबूत की गई। ओबीसी-दलित नेताओं ने अपने वर्गों तक यह बात पहुंचाने में मदद की कि केंद्र सरकार की योजनाओं का सबसे ज्यादा लाभ उन्हीं लोगों को मिल रहा है। इन वर्गों में यह बात ज्यादा गहराई तक पहुंचने का ही असर चुनाव परिणामों में भी दिखाई पड़ा और भाजपा जीत हासिल करने में कामयाब रही।
सम्मान, लेकिन अंतर्द्वंद्व नहीं
आरएसएस-भाजपा ने बड़ी समझदारी के साथ संगठन में ओबीसी-दलित समाज की भागीदारी बढ़ाई। कई स्थानों पर उच्च जाति के नेताओं को हटाकर भी ओबीसी-दलित नेताओं को भागीदारी दी गई। प्रदेश अध्यक्ष से लेकर केंद्रीय संगठन में उनकी भूमिका बढ़ाई गई। पिछली बार के केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में भी यही ट्रेंड देखा गया। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से भाजपा के उच्च जाति के नेताओं ने इसका कहीं कोई विरोध नहीं किया। पार्टी के आंतरिक मंचों पर भी इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं सुनी गई। भाजपा में जातीय समीकरण बदलने से भी कोई नकारात्मक हलचल न होने से संगठन के प्रति इन समाजों में विश्वास बढ़ा है।
यह भाजपा के मजबूत नेतृत्व के बेहतर समन्वयवादी सोच को दिखाती है। पार्टी की इस रणनीति से ओबीसी-दलित समाज में भाजपा के प्रति आकर्षण बढ़ा है। उन्हें सम्मान के साथ साथ सत्ता में भी भागीदारी मिलती दिख रही है। पार्टी चाहती है कि इन वर्गों का यह रुझान अस्थाई न साबित हो। इसके लिए वह लगातार कई उपक्रम कर इन वर्गों को अपने साथ जोड़े रखने का कार्य कर रही है। जबकि जातीय राजनीति करने वाले दलों ने इस तरह की कोई दीर्घकालिक रणनीति नहीं बनाई जिसका आज उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है।
भाजपा को घेरने की रणनीति नहीं
जद(यू) नेता कैसी त्यागी ने अमर उजाला से कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी स्वयं को पिछड़ी जाति का नेता बताते हुए इन वर्गों की गरीबी दूर करने की बात करते रहे हैं। बिहार की जनसभाओं में भी वे खुद को पिछड़ी जाति का बेटा बता चुके हैं। ऐसे में नीतीश कुमार की कोशिश को भाजपा को घेरने की रणनीति की बजाय प्रधानमंत्री के मिशन को ही आगे बढ़ाने की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए। जद(यू) नेता की इस सफाई के बाद भी राजनीतिक विश्लेषक जातिगत जनगणना के मुद्दे को को भाजपा को घेरने की रणनीति ही मान रहे हैं।
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