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‘रहना है तो रहें, जाना है तो जल्दी जाएं’
उपेंद्र कुशवाहा के बारे में नीतीश अब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। जिस तरह रार का मन कुशवाहा ने बनाया है, उसी तरह उनकी बात न सुनने का फैसला नीतीश ने कर लिया है। नीतीश का कहना है कि कोई शिकायत है तो उस पर चर्चा पार्टी की बैठक में होनी चाहिए, न कि ट्वीट वार छेड़ना चाहिए। इसलिए कुशवाहा जेडीयू में रहें तो अच्छा है और अगर उन्हें कहीं जाना है तो यह उनकी इच्छा है। नीतीश के बयान से साफ है कि कुशवाहा के रहने या नहीं रहने से जेडीयू पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है। पहले भी वे पार्टी छोड़ चले गए थे और बाद में लौट आए। वापसी का पार्टी ने स्वागत किया। उन्हें इज्जत दी। कुशवाहा को कुछ कहना है तो सामने आकर बात करना चाहिए। ट्विटर के माध्यम से कोई बात हो सकता है भला।
कुशवाहा के जाने का इंतजार करेगी JDU
जेडीयू का इतिहास रहा है कि वह अपने किसी साथी को निकालती नहीं है। हालात ऐसे पैदा किये जाते हैं कि कोई खुद ही बाहर का रास्ता नाप ले। समता पार्टी के जमाने में जॉर्ज फर्नांडीस से शुरू हुआ सिलसिला शरद यादव, शकुनी चौधरी, शिवानंद तिवारी, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह (अब जेडीयू के अध्यक्ष), प्रशांत किशोर, आरसीपी सिंह होते हुए अब उपेंद्र कुशवाहा तक पहुंचा है। सभी ने स्वतः एग्जिट का रास्ता अपनाया था। कुशवाहा भी खुद एग्जिट कर जायें, जेडीयू इसी का इंतजार करेगी। शायद यही वजह है कि नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि कुशवाहा को जहां जाना हो, जायें। जल्दी चले जायें।
कुशवाहा ने बना ली अपनी रणनीति
इधर, उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी रणनीति बना ली है। अभी उन्होंने जो भी कदम उठाये हैं, उसे कोई पार्टी विरोधी गतिविधि करार नहीं दे सकता। उन पर यही एक आरोप है कि बीजेपी से उनकी नजदीकी बढ़ी है। इसके लिए भी एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जब वे दिल्ली एम्स में हेल्थ की जांच के लिए भर्ती थे तो उनसे बीजेपी के कुछ नेता मिलने गये थे। इसके अलावा तो उनकी सारी बातें पार्टी और अपने नेता के हित में ही कही गयी हैं। उन्होंने हिस्सेदारी की बात भी तब की है, जब उनके बड़े मानस भ्राता (नीतीश कुमार) ने उन्हें जल्द चले जाने को कहा। यानी कुशवाहा ने भी साफ कर दिया है कि पार्टी में रह कर वे अपनी बात कहते रहेंगे। वह इस बात का इंतजार करेंगे कि उन्हें पार्टी ही निकाले, ताकि वे शहीद के रूप में खुद को जनता के सामने पेश कर सकें।
जेडीयू में विदाई-वापसी का पुराना रिवाज
जेडीयू में नेताओं की विदाई और वापसी का पुराना रिवाज और परखा अंदाज रहा है। जाने वाले नेता पहले पार्टी नेतृत्व पर आरोप लगाते हैं। कुछ दिन बयानबाजी चलती है और आहिस्ता से वे अपना रास्ता अलग कर लेते हैं। समता पार्टी के जमाने में ही इसकी नींव पड़ गयी थी, जब जॉर्ज फर्नांडीस ने पार्टी छोड़ी थी। पार्टी का टिकट नहीं मिलने पर 2009 के लोकसभा चुनाव में फर्नांडीस ने निर्दलीय लड़ा था। बाद में बात बनी और कुछ दिन के लिए वे जेडीयू के कोटे से राज्यसभा के सदस्य रह पाये। शरद यादव भी पार्टी से अनबन के कारण ही अलग हो गये थे। शरद यादव राज्यसभा के सदस्य थे। पार्टी ने अनबन के कारण उनकी सदस्यता भी रद्द करा दी थी। शरद भी पार्टी में रह कर नेतृत्व के निर्णयों के खिलाफ बोल रहे थे। राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह भी नेतृत्व से खफा होकर 2010 में जेडीयू के खिलाफ गये थे। बाद में पार्टी में उनकी वापसी हुई और अभी वे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। पार्टी छोड़ कर जाने और वापसी की परिपाटी जेडीयू में नयी नहीं है। वशिष्ठ नारायण सिंह और उपेंद्र कुशवाहा दो बार जेडीयू छोड़ कर गये और फिर लौट आये। अब कुशवाहा के फिर जाने का अंदेशा है।
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