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क्या है मुकेश सहनी का मामला?
विधानसभा के चुनाव में बीजेपी ने मुकेश सहनी की पार्टी के लिए अपने कोटे से सीट छोड़ी थीं, जिनमें चार विधायक जीते थे लेकिन मुकेश सहनी खुद हार गए थे। मुकेश सहनी को मंत्रिपरिषद में लेने के लिए उन्हें विधान परिषद भेजा गया। सहनी बीजेपी और जेडीयू से जिस तरह की तवज्जो की उम्मीद कर रहे थे, वह उन्हें नहीं मिली। इसी बीच उनके एक विधायक के निधन के कारण खाली हुई विधानसभा सीट के लिए जब उपचुनाव घोषित हुआ तो बीजेपी ने इसी सीट पर अपना उम्मीदवार उतार दिया। मुकेश सहनी ने दबाव की राजनीति के तहत तेजस्वी यादव के साथ ढाई- ढाई साल के सीएम बनने-बनाने का ऑफर पेश किया, जिसने बीजेपी को ज्यादा नाराज कर दिया।
नतीजा यह हुआ कि सहनी की पार्टी के तीन विधायक बीजेपी में शामिल हो गए। बीजेपी नेता और बिहार सरकार में मंत्री शाहनवाज हुसैन ने एनबीटी को दिए गए इंटरव्यू में इस ‘दल-बदल’ के बचाव के लिए यह तर्क दिया कि ‘सहनी के पास चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार नहीं थे तो उन्हें जिताऊ उम्मीदवार बीजेपी ने दिए थे। जिन तीन विधायकों ने बीजेपी जॉइन की है वह मूल रूप से बीजेपी के ही हैं, उन्होंने घर वापसी की है।’ विधायकों के साथ छोड़ देने के बाद मुकेश सहनी के पास विकल्प सीमित हो गए हैं। एक विकल्प यह है कि नीतीश कुमार उन्हें अपने पाले में कर लें या फिर वह आरजेडी के साथ जाएं।
मांझी क्या कर सकते हैं?
बिहार की गठबंधन सरकार में जीतन राम मांझी की पार्टी भी घटक है। मांझी सहित इस पार्टी के चार विधायक हैं। विधानसभा के चुनाव में उन्हें जेडीयू कोटे से सीट मिलीं थी। मांझी ने अपने बेटे को विधान परिषद भिजवाने में कामयाबी पाई और वह नीतीश सरकार में मंत्री भी हैं। जब सहनी की पार्टी के तीन विधायकों ने बीजेपी जॉइन की तबसे बिहार के राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा है कि यह जीतन राम मांझी के लिए ‘ट्रेलर’ है। उन्होंने भी अगर गठबंधन सरकार को आंख दिखाने की कोशिश की तो उनके साथ भी वही हो सकता है जो सहनी के साथ हुआ है। मांझी महत्वाकांक्षी तो हैं लेकिन वह अनुभवी भी हैं। उन्हें मालूम है कि चार विधायकों के जरिए बिहार की राजनीति में फौरी तौर पर कोई उलटफेर नहीं किया जा सकता है। लोकसभा के चुनाव में अभी दो साल और विधानसभा के चुनाव में तीन साल का वक्त है। ऐसे में वह सरकार के साथ बने रहने में ही अपनी भलाई देखेंगे। उनकी पार्टी के विधायकों को अपने साथ लाने की कोई कोशिश जेडीयू और बीजेपी की तरफ से होने की उम्मीद नहीं है।
एनडीए सरकार कितनी सुरक्षित?
विधानसभा का जो दलीय गणित है, उसमें इस उठापटक के बावजूद नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए कोई खतरा नहीं दिखता। 243 सदस्यों का सदन है, जिसमें बहुमत के लिए 122 सदस्य चाहिए होते हैं। इस वक्त एक सीट खाली भी है। अगर पूरा विपक्ष यहां तक कि ओवैसी की पार्टी भी एक हो जाती हैं तो भी उनकी सरकार नहीं बनती है क्योंकि इन सारे दलों के विधायकों का जोड़ 115 ही पहुंच पाता है। किसी भी परिस्थिति में अगर जीतन राम मांझी भी विपक्ष के साथ आ जाते हैं तो उनके चार विधायकों को मिलाकर भी यह जोड़ 119 तक ही जा पाता और एक निर्दलीय विधायक को भी जोड़ लिया जाए तो भी यह संख्या 120 ही पहुंचती है। सदन में अब बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी हो चुकी है। उसके 77 विधायक हैं और और जेडीयू के 45 विधायक हैं। इन दोनों पार्टियों का जोड़ ही बहुमत के जादुई आंकड़े को छू लेता है। अब अगर विपक्ष वैसा ही कोई करिश्मा दिखा ले जैसे बीजेपी ने कर्नाटक और मध्यप्रदेश में दिखाया था (विधायकों के सदन की सदस्यता से इस्तीफा दिलाने वाला) तभी कोई बात बनने की गुंजाइश दिखती है।
क्या नीतीश पर BJP का दबाव बढ़ेगा?
विधानसभा के चुनाव में सदन के सदस्यों के हिसाब से आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी थी। बीजेपी दूसरे नंबर पर और जेडीयू तीसरे नंबर पर। जेडीयू के तीसरे नंबर पर होने के बावजूद बीजेपी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया था। अब जब बीजेपी सदन में सबसे पार्टी बन गई है और जेडीयू से वह 22 विधायक आगे है तो उसमें नीतीश कुमार पर नैतिक दबाव बढ़ना स्वाभाविक है लेकिन उसके लिए नीतीश कुमार को हटाकर अपनी सीएम बना पाना आसान नहीं है। बहुमत के लिए जो 45 विधायकों की दूरी है, वह जेडीयू के जरिए ही पूरी हो सकती है।
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