Home Bihar Bihar Politics: नीतीश के तिकड़मी राजनीति का तिलिस्म तोड़ पाएंगे कुशवाहा? बीजेपी की नजर में मांझी भी अहम, जानिए क्यों

Bihar Politics: नीतीश के तिकड़मी राजनीति का तिलिस्म तोड़ पाएंगे कुशवाहा? बीजेपी की नजर में मांझी भी अहम, जानिए क्यों

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Bihar Politics: नीतीश के तिकड़मी राजनीति का तिलिस्म तोड़ पाएंगे कुशवाहा? बीजेपी की नजर में मांझी भी अहम, जानिए क्यों

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ओमप्रकाश अश्क, पटना: देश में जब-जब चुनाव होते हैं, नेताओं में भगदड़ जरूर मचती है। इस दल या गठबंधन से उस दल या गठबंधन में आने-जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। काफी हद तक यह चुनाव में टिकट बंटवारे तक चलता है। चुनाव बाद भी इधर-उधर की आवाजाही होती है, लेकिन तब यह ज्यादातर सौदेबाजी के रूप में सामने आती है। पद और पैसा इसके पीछे होता है। सौदेबाजी तो टिकट बंटवारे के वक्त भी होती है, लेकिन तब पैसा-पद का कोई मायने नहीं रहता।

उपेंद्र कुशवाहा (उपेंद्र कुशवाहा) ने 2019 में एनडीए का साथ छोड़ा था, तो इसके पीछे टिकट की सौदेबाजी थी। वह बीजेपी से लोकसभा की ज्यादा सीटें मांग रहे थे, लेकिन बीजेपी 2 से 3 सीटें ही देना चाहती थी। ताव खाकर वह अलग हो गये थे। चुनाव बाद उन्हें बीजेपी से सौदेबाजी का मौका इसलिए नहीं मिला कि उनकी पार्टी तो हारी ही, खुद अपनी सीट भी वह नहीं बचा पाये थे। दो साल बाद उन्होंने जेडीयू में अपना ठौर तलाशा। जाहिर है कि यहां आने के लिए सौदेबाजी का कोई आधार उनके पास नहीं था। नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की कृपा बरसने की उम्मीद में ही उन्होंने जेडीयू में वापसी की थी। बहरहाल, कुशवाहा ही नहीं, बल्कि उनकी ही तरह टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, शिवसेना के उद्धव ठाकरे ने भी बीजेपी का साथ 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले छोड़ दिया था। मगर, इसका कोई असर बीजेपी पर नहीं पड़ा और नरेंद्र मोदी पहले से अधिक ताकतवर होकर उभरे थे।

कुशवाहा के प्रति क्यों उमड़ रहा भाजपा का प्रेम?

बीजेपी प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में उपेंद्र कुशवाहा पर चर्चा हुई। चर्चा तो हम (से) नेता जीतन राम मांझी पर भी हुई। अंदर की खबर है कि दोनों के नाम पर बीजेपी में कोई आपत्ति नहीं है। अलबत्ता नीतीश कुमार की एनडीए में सारे दरवाजे अब बंद हो चुके हैं। बीजेपी का कुशवाहा प्रेम क्यों है, इसे समझने के लिए उनके हालिया हावभाव पर गौर करना चाहिए। बीजेपी तो अब नीतीश के साथ की संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करती है, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा के स्वागत के लिए पार्टी के सभी नेता बेचैन हैं। माना जा रहा है कि इनकी जाति के 7 प्रतिशत वोट हैं और इन्होंने इतने का जुगाड़ कर दिया तो बीजेपी की राह के कांटे निकल जाएंगे।

चिराग और पारस से दलित वोटरों को साधेगी बीजेपी

बिहार में करीब 17-18 प्रतिशत वोट दलित समुदाय के माने जाते हैं। इसके लिए बीजेपी चिराग पासवान और उनके चाचा केंद्रीय मंत्री पशुपति पारस की मदद लेगी। बीजेपी की कोशिश तो हम (से) के नेता जीतन राम मांझी को भी अपने पाले में करने की है। बीजेपी की रणनीति इसी कैलकुलेशन पर तैयार हो रही है। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बिहार में दो ही पार्टनर थे- रामविलास पासवान की लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा। तब बीजेपी को सर्वाधिक सीटें मिली थीं और सहयोगी दल भी वैतरणी पार कर गये थे।

बीजेपी की पहली कोशिश अपने पुराने पार्टनर को साथ लाने की है। मांझी अगर आ गये तो वोटों का गणित सुलझाना बीजेपी के लिए और आसान हो जाएगा। जहां तक दलित वोटों का सवाल है तो यह सभी जानते हैं कि नीतीश अब इनके लिए जितना भी करें, मगर इनके वोटों की दो दिग्गज ठेकेदार पार्टियां- लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों धड़े और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) के जीतन राम माझी ही असली हकदार हैं। मांझी तो अभी राजद से सट कर उपेंद्र कुशवाहा के अंदाज-ए-बयां में पंचमेवा बने हुए हैं, लेकिन बीजेपी के अंदरखाने उन्हें लेकर भी चर्चा है। संभव है कि लोकसभा चुनाव के करीब आते ही मांझी भी एनडीए का हिस्सा बन जाएं।

नीतीश की ताकत तिकड़म के अलावा कुछ नहीं

लगातार 17 वर्षों से बिहार में सरकार चला रहे नीतीश कुमार का एजेंडा भले विकास का रहा है, लेकिन तिकड़म की राजनीति के वे माहिर खिलाड़ी हैं। अगर माहिर नहीं होते तो अपनी पार्टी की कम सीटों के बावजूद पहले एनडीए में और अब महागठबंधन में वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। राजनीति में हवा के रुख को पहचानने में उन्हें महारथ हासिल है। देश के मौजूदा माहौल में भाजपा या सीधे कहें तो नरेंद्र मोदी से खफा चल रहे मुस्लिमों का वोट 2020 के पहले तक नीतीश कुमार इसलिए पाते रहे हैं कि उन्होंने नरेंद्र मोदी का हमेशा विरोध किया। तब भी, जब वह भाजपा के सहारे अपनी सरकार चला रहे थे।

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कभी बाढ़ राहत के लिए गुजरात का सीएम रहते नरेंद्र मोदी द्वारा बिहार को भेजे गये पैसे लौटा कर या उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किये जाने पर भाजपा से रिश्ता तोड़ कर उन्होंने मुसलमानों में अपनी पैठ पुख्ता करने की कोशिश की। इसका सीधा फायदा उन्हें यह हुआ कि लालू प्रसाद यादव के राजद के पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम-यादव में मुस्लिम को उन्होंने अपने पाले में कर लिया था। पसमांदा और सवर्ण मुसलमान की श्रेणी बना कर उन्होंने मुसलमानों को वश में किया। दलित वोट झटकने के लिए नीतीश ने दलित और महादलित कार्ड खेले। ये टोटके पिछले चुनावों तक कारगर भी रहे। बीजेपी वैसे भी मुस्लिम वोटों पर पहुत भरोसा नहीं करती है। उसे इसकी चिंता भी नहीं है, क्योंकि बिहार में आरजेडी ही तत्काल इन वोटों की ठेकेदार है। दलित और पिछड़े वोटों के लिए बीजेपी के पास लोक जनशक्ति के दोनों धड़े हैं। उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह बीजेपी के सशक्त टूल बन सकते हैं। दोनों जिस जाति से आते हैं, उसके 7 प्रतिशत वोट बिहार में बताये जाते हैं।

अब मुसलमान वोटरों का भी नीतीश को साथ नहीं

2015 के बिहार असेंबली इलेक्शन में नीतीश कुमार ने लालू के साथ हाथ मिलाया था। नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कोस कर नीतीश कुमार ने मुसलमानों का वोट थोक में हासिल किया था। पाला बदल की नीति से नीतीश अब अपने वोटरों में अविश्वसनीय हो गये हैं। वह महागठबंधन में रहें या एनडीए के साथ, उन पर मुस्लिम वोटर भरोसा नहीं करते। हालांकि मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए ही वह बार-बार बोलते रहते हैं कि उनकी सरकार कम्युनलिज्म से समझौता नहीं करती।

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मुस्लिमों को खुश रखने के लिए ही नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना योग दिवस पर होने वाले कार्यक्रमों में शामिल होने से नीतीश कतराते रहे हैं। इतना ही नहीं, अपने दल के नेताओं को भी मना करते रहे हैं। भाजपा के साथ रह कर भी उन्होंने यही रवैया अपनाया। हां, वह इफ्तार पार्टियों में जरूर जाते रहे और नमाजियों की तरह टोपी भी धारण की, जिसे पहनने से कभी नरेंद्र मोदी ने सीधे मना कर दिया था। यानी मुसमानों का हितैषी दिखने का नीतीश कोई मौका गंवाते नहीं। उन्हें भ्रम है कि बीजेपी के साथ रहने के कारण ही मुसलमान वोटर 2020 में उनसे कट गये। विधानसभा में जेडीयू के टिकट पर कोई मुसलमान उम्मीदवार जीत कर नहीं आया। महागठबंधन के साथ रहने पर भी अब मुसलमान शायद ही उन पर भरोसा करें, क्योंकि उनकी छवि पलटीमार की बन गयी है।

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