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Bihar Politics: Upendra Kushwaha
– फोटो : ANI (File Photo)
विस्तार
पटना में रोज राजनीति का पारा कुछ डिग्री चढ़ रहा है। इस पार जद(यू) संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा और उस पार जद(यू) के प्रमुख बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। कुशवाहा अपने मुख्यमंत्री, नेता और राजनीति में बड़े भाई नीतीश कुमार से अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं। यह वही हिस्सेदारी है जो नीतीश कुमार 1994 में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से मांग रहे थे। 12 करोड़ की आबादी वाले बिहार की हवा-पानी में राजनीति घुली रहती है। लोगों का मानना है कि उपेंद्र कुशवाहा दिल्ली के घोड़े पर बैठकर रोज अपनी मांग तेज कर रहे हैं। देखना है, क्या वह शतरंज की बिसात पर ढाई कदम चल पाते हैं। दूसरी तरफ नीतीश कुमार बिहार के लोगों को जोड़ने के उद्देश्य से सहरसा जिले में समाधान यात्रा लेकर पहुंचे हैं। आगे बढ़ रहे हैं।
जद(यू) के तमाम नेता उपेंद्र कुशवाहा के पाले में खड़े हैं। उन्हें उपेंद्र कुशवाहा की मांग और बात दोनों सही लग रही है। जद(यू) के अधिकांश नेता कहते हैं कि बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। कभी इसी तरह से पवन वर्मा, प्रशांत किशोर, आरसीपी सिंह समेत तमाम नाम थे जो हिस्सेदारी के इंतजार में जद(यू) छोड़ गए। कहते हैं नीतीश को ऐसे संकट से निपटने में महारथ हासिल है। तभी वह 18 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिना जद (यू) के पूर्ण बहुमत पाए काबिज हैं। जब चाहते हैं भाजपा को छोड़ देते हैं। जब चाहते हैं राजद को छोड़ देते हैं। कई बार पाला बदलने के बाद भी वह मुख्यमंत्री और राजनीति की धुरी बने हैं। यहां तक कि समता पार्टी के संस्थापक जार्ज फर्नांडीज की विदाई भी लोगों को याद है। जद(यू) के संस्थापक और हाल में नश्वर शरीर त्यागने वाले शरद यादव के खिलाफ जाने में भी नीतीश नहीं हिचके। इसमें राजनीतिक नुकसान भी जार्ज और शरद को ही हुआ।
क्या ढाई कदम चल पाएंगे उपेंद्र कुशवाहा?
इस बार पटना में राजनीति का फ्लेवर थोड़ा अलग है। मामला कुछ-कुछ खुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान से मिलता जुलता है। चार बार नीतीश कुमार का साथ छोड़ और पकड़ चुके उपेंद्र कुशवाहा के लिए इम्तिहान जैसा है। इस बार कभी नीतीश के करीबी और जद(यू) में प्रभावी रहे आरसीपी सिंह, प्रशांत किशोर, पवन वर्मा के बाहर होने के फ्लेवर से जरा अलग है। उपेंद्र कुशवाहा पिछले महीने स्वास्थ्य चेक-अप के लिए दिल्ली आए थे। उनसे मिलने कुछ भाजपा नेता भी गए। कहा जाता है कि उनके पास भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का भी मार्गदर्शन और संदेश पहुंचा। इसके बाद जैसे ही कुशवाहा पटना पहुंचे, वह अपनी हिस्सेदारी लेने में जुट गए हैं। आए दिन प्रेस वार्ता करते हैं। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच में हुई सीक्रेट डील का मुद्दा उछालते हैं। इस डील के बहाने कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने 2024 से पहले तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया है। बिहार की राजनीति को पकड़ने वाले एक बड़े राजनेता कहते हैं कि इससे लोगों को लग रहा है भाजपा या फिर राजद को फायदा होगा। तेजस्वी का दावा मजबूत होगा। लेकिन लोग गलत समझ रहे हैं। इससे बिहार में नीतीश कुमार अपनी दमदार छवि बनाने में सफल होंगे। क्योंकि तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल को थोड़ा समझ और संभलकर चलना पड़ेगा।
दरअसल, नीतीश कुमार की राजनीति का एक तरीका है। जब कोई पार्टी का नेता नीतीश कुमार के विरोध में खड़ा होता है, तो वह खुद को सज्जनता के मोड़ पर लेकर चले जाते हैं। उस नेता के विरोध में पार्टी के एक-दो दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं को आगे करते हैं। जैसे इस समय उमेश कुशवाहा ने उपेंद्र कुशवाहा से इस्तीफा मांग लिया है। उन्हें और जनता में उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष होने का एहसास कराया है। इसके साथ साथ नीतीश कुमार संदेश देते हैं कि जिसे भी वह राजनीति में अवसर और बड़ी जिम्मेदारी देते हैं, वह कुछ दिन महत्वाकांक्षा में बागी होने लगता है। नीतीश कुमार ऐसे नेताओं से संवाद की पहल नहीं करते और एक संदेश देते हैं कि वह साथ काम कर सके तो ठीक है। नहीं कर पा रहा है और छोडक़र जाने की इच्छा हो तो चला जाए। इस पैटर्न पर तमाम विरोधियों ने जद(यू) छोड़ दी और नीतीश कुमार अपने दमखम पर बने रहे।
भाजपा ने पासा फेंका तो नीतीश ने नहले पर दहला चल दिया है
भाजपा ने नीतीश कुमार की पर्दे के पीछे से छेड़छाड़ के साथ कूटनीति से भरी राजनीति को आगे किया है। भाजपा ने बयान देखकर साफ किया कि उसकी तरफ से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। भाजपा अपनी इस चाल से राष्ट्रीय जनता दल को आश्वस्त कर देना चाहती है कि वह पलटू राम को लेकर कोई खतरा न महसूस करे। इसके साथ साथ नीतीश कुमार के विरोध में भाजपा के नेता कोई बड़ा राजनीतिक मोर्चा नहीं खोल रहे हैं। समझा जा रहा है कि भाजपा नेताओं की कोशिश उपेंद्र कुशवाहा के बहाने कोईरी, कुर्मी और कुशवाहा के जनाधार को बांटकर नीतीश कुमार की मतदाताओं में ताकत आधी करने की है। इसके साथ-साथ भाजपा के नेता चाहते हैं कि तेजस्वी यादव की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जल्द से जल्द साकार हो। ऐसा होने पर भाजपा बिहार में जंगल राज की वापसी का नारा बुलंद कर पाएगी। ऐसा लग रहा है कि भाजपा के नेताओं को नीतीश कुमार के विरोध में अपने महत्वाकांक्षा की जीत नहीं दिखाई दे रही है। क्योंकि आरसीपी से लेकर पिछले तमाम प्रयोग फेल हो गए। दूसरे 18 साल के नीतीश के मुख्यमंत्रित्व काल में करीब 15 साल तो भाजपा के गठबंधन में बीते हैं। इसलिए नीतीश पर हमला बैकफुट पर ला देता है।
भाजपा के इस नहले पर नीतीश कुमार ने दहला चला है। वह तेजस्वी यादव के पीछे बार-बार ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। उन्होंने पिछले दिनों बयान दिया कि लालू प्रसाद यादव को साजिशन फंसाया गया। इस बहाने उन्होंने जनता में इसे सहानुभूति से जोड़ा। तीसरा बड़ा कदम भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना पर साफ बयान देकर उठाया। नीतीश कुमार ने कहा कि अब वह मरना कुबूल करेंगे, लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन में जाना नहीं। राष्ट्रीय जनता दल यही सुनना भी चाहती है।
तेजस्वी यादव समझने लगे हैं राजनीति की काफी बारीकियां
तेजस्वी से पहले चर्चा उनके बड़े भाई तेज प्रताप की जरूरी है। तेज प्रताप के बयान राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव दोनों को असहज कर देते हैं। लंबे समय से तेज प्रताप यादव अपनी चिरपरचित मुद्रा में नहीं आ रहे हैं। राजद के बड़े नेता जगदानंद सिंह और उनके बेटे के प्रति तेजस्वी यादव के रुख ने काफी कुछ बयां कर दिया है। यहां तक कि खुद तेजस्वी यादव अपने नेताओं को गठबंधन धर्म का पालन करने की सीख देते नजर आ रहे हैं। तेजस्वी यादव राजनीतिक धैर्य से काम ले रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा के हिस्सेदारी मांगने वाले बयान भी तेजस्वी के लिए संदेश की तरह हैं।
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