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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है, जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने और विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे। अपनी ढलती उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया। तभी तो उनकी वीरता का बखान भोजपुरी अंचल के होली गीतों में मिलता है- बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर…बंगला में उड़े ला अबीर हो…।
इतिहास के पन्नों में अमर कुंवर सिंह
वीर सावरकर ने अपनी प्रसिद्ध किताब- 1857 का महासमर में बाबू कुंवर सिंह पर विस्तार से लिखा है। सावरकर की नजर में कुंवर सिंह उस आंदोलन के सबसे प्रभावी नेता थे। उनसे मुकाबला करने का माद्दा उस दौर में किसी के पास नहीं था। प्रसिद्ध इतिहासकार पंडित सुंदरलाल ने उनके बारे में लिखा है कि जगदीशपुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे, कुंवर सिंह की आयु उस समय 80 साल से ऊपर थी। फिर भी कुंवर सिंह बिहार के क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता और 57 के सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में से थे। एक अन्य इतिहासकार ने लिखा है कि 81 साल के बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार युद्धस्थल के बीच बिजली की तरह इधर-उधर लपकते हुए दिखाई दे रहे थे। जाहिर है कुंवर सिंह के ऐतिहासिक योगदान को तब भी रेखांकित किया गया और वर्तमान समय में भी वे प्रेरणा देने का काम कर रहे हैं।
कुंवर सिंह का संघर्ष और विजय यात्रा
जुलाई 1857 में पटना में क्रांतिकारियों के नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। उनकी शहादत से गुस्साए दानापुर छावनी के भारतीय सिपाहियों ने बगावत का बिगूल फूंक दिया और जगदीशपुर की ओर कूच कर गए। ये 25 जुलाई 1857 की बात है। खबर मिलते ही बाबू कुंवर सिंह ने तुरंत अपने महल से निकले और इस सेना का नेतृत्व संभाल लिया। सैनिकों का जत्था आरा पहुंचा और अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया गया। जेलखाने के कैदियों को रिहा करा दिया। अंग्रेजी दफ्तरों को गिरा दिया और आरा हाउस को घेर लिया। दानापुर छावनी के कप्तान डनवर के नेतृत्व में करीब 300 अंग्रेज और करीब सौ सिख सिपाही आरा पहुंचे तो कुंवर सिंह के सैनिकों संग उनकी भीषण संग्राम हुआ। कहते हैं इस युद्ध में 415 में से मात्र 50 अंग्रेज-सिख सिपाही जीवित बचे। इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर आरा किले में घिरे अंग्रेज सिपाहियों की सहायता के लिए बढ़ा। दो अगस्त 1857 को बीबीगंज के निकट कुंवर सिंह की सेना और मेजर आयर की सेना में संग्राम हुआ। उस लड़ाई में अंग्रेज कुंवर सिंह पर भारी पड़े। अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर कब्जा कर लिया। बाबू साहेब को महल की महिलाओं के साथ वहां से निकलकर आजमगढ़ के पास अतरोलिया में डेरा डालना पड़ा। 22 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने मिलमैन के नेतृत्व में कुंवर सिंह पर हमला कर दिया। लेकिन कुंवर सिंह की सेना ने अंग्रेजों को भगा दिया और उनकी हथियार छीन लिये। फिर आजमगढ़ पर कब्जा जमा लिया।
अपनी बांह काट गंगा को अर्पित कर दिए
इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर और गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। लेकिन कुंवर सिंह की ये विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर दोबारा कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया। इस बीच कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे। जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेज की गोली आकर लगी। उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी। इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेजी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर पहुंचे। वो बुरी तरह से घायल थे। 1857 की क्रान्ति के इस महान नायक का आखिरकार अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए 26 अप्रैल 1858 को निधन हो गया।
अंग्रेज अधिकारी ने लिखा आंखों देखा हाल
23 अप्रैल 1958 को आजादी के लिए लड़ रही कुंवर सिंह की सेना की वीरता का जो दृश्य एक अंग्रेज अफसर ने देखा था, उसने शब्दों में उसका वर्णन किया है। उसने लिखा है कि वास्तव में इसके बाद जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया। शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। कुछ बीच रास्ते में गिर कर मर गये। चारों ओर आह, चीख और रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। बाकी को कुंवर सिंह के सैनिकों ने काट डाला। हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गये। जनरल लीग्रैंड की छाती में गोली लगी। वह मर गया। अंग्रेजी सेना के ही सिख सैनिकों ने हमसे हाथी छीन लिये।
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