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सुशासन बाबू का सपना टूटा!
हम मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सियासी सपने को पलीता लगा रहे तत्वों का खुलासा करेंगे। उससे पहले, कुछ बातें आपको जान लेनी जरूरी है। ये दीगर है कि नीतीश कुमार हमेशा से बीजेपी विरोधी पार्टियों के पसंद रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी पार्टियों ने नीतीश को बीजेपी के खिलाफ आगे करने की प्लानिंग की थी। नीतीश कुमार खुद ही इससे पीछे हट गए। उसके एक साल बाद नीतीश कुमार को बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में झटका लगा। स्थिति ये हो गई कि जेडीयू का संख्या बल कम हो गया। बीजेपी ने दो-दो डेप्यूटी सीएम और विधानसभा अध्यक्ष अपनी पार्टी के बना दिये। विधायकों की संख्या के लिहाज से बीजेपी जेडीयू पर भारी पड़ने लगी। सियासी जानकार मानते हैं कि बिहार में बीजेपी मुख्यमंत्री के चेहरे की तलाश कर रही थी। इस दौरान नीतीश कुमार को केंद्र में बड़ा पद देने की चर्चा चल पड़ी। नीतीश कुमार केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाना बिल्कुल नहीं चाहते थे, लेकिन राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति जैसे पद में उनकी रूचि थी। बीजेपी ने अंतिम समय में इन दोनों पदों के लिए भी उनका चयन नहीं किया। चर्चा महज सियासी गलियारों में गूंजकर रह गई। बीजेपी के अंदर के सूत्र बताते हैं कि उसके बाद से ही नीतीश कुमार बीजेपी के साथ असहज होने लगे। वे बहाना खोजने लगे। तभी, उन्हें चिराग के माध्यम से जेडीयू को तोड़ने वाली साजिश का पता चला।
नीतीश ने शुरू की पहल
बिहार की सियासत को समझने वाले जानकार मानते हैं कि नीतीश कुमार को जैसे ही बीजेपी की साजिश का पता चला। उन्होंने फैसला ले लिया और महागठबंधन के साथ सरकार का गठन कर लिया। उसी समय उन्होंने एक बैठक में बीजेपी के खिलाफ फ्रंट बनाने की शपथ ली। नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की कवायद शुरू कर दी। अचानक तेलंगाना के सीएम केसीआर पटना पहुंचे। केसीआर के साथ नीतीश कुमार की प्रेस कांफ्रेस महज सियासी चर्चा बनकर रह गई। उसके बाद नीतीश कुमार ने दो बार दिल्ली का दौरा किया। पहली बार उन्होंने अरविंद केजरीवाल, देवगौड़ा सहित सीताराम येचुरी जैसे नेताओं से मुलाकात की। उसके बाद नीतीश कुमार ने हरियाणा में विपक्षी नेताओं के साथ मंच साझा किया। हालांकि, इस मंच पर कई नेता मौजूद नहीं रहे। यहां भी विपक्षी एकता का सपना बिखरा सा दिखा। उसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बड़े भाई लालू के साथ कांग्रेस नेता सोनिया गांधी से मिलने गए। मुलाकात की तस्वीर दोनों नेता जारी नहीं कर सके। सियासी गलियारों में चर्चा हुई कि सोनिया गांधी ने विपक्षी एकता में नीतीश की अगुवाई पर अपनी सहमति नहीं दी।
कांग्रेस का रिस्पांस ठंडा
सोनिया गांधी से रिस्पांस ठंडा मिलने के बाद नीतीश कुमार निराश हो गए। तीन महीने पहले शुरू हुई कवायद अचानक ठंडी पड़ने लगी। इस कवायद पर बर्फ डालने का काम मल्लिकार्जुन खड़गे ने पटना पहुंचकर कर दिया। खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष पद के तत्कालीन उम्मीदवार थे। उनसे जब पत्रकारों ने नीतीश के राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर सवाल किया, तो वे जवाब टाल गए। आप समझ सकते हैं कि नीतीश-लालू से सोनिया की मुलाकात असरदार नहीं रहने का नतीजा और प्रभाव, कांग्रेस के बाकी नेताओं पर भी दिखने लगा। मल्लिकार्जुन खड़गे ने पटना में कहा कि जब मैं राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाउंगा, तब इस बात का जवाब दूंगा। उससे पूर्व में खड़गे ने अपनी उम्मीदवारी के प्रचार के दौरान अगला प्रधानमंत्री का दावेदार कौन होगा, इस सवाल के जवाब में कह चुके थे- पहले तो मैं संगठन चुनाव में आया हूं। हमारे यहां एक कहावत है। मैं बहुत जगह रिपीट करता हूं। बकरा ईद में बचेगा तो मोहर्रम में नाचेंगे। पहले तो मेरा चुनाव खत्म होने दो। अध्यक्ष बनने दो, उसके बाद देखेंगे। आप समझ सकते हैं इस बयान ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उत्साह को और डाउन कर दिया। उधर, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जोर-शोर शुरू हो गई। सियासी जानकार कहते हैं कि कांग्रेस सिर्फ अपना सोचती है। इसका पूर्व का उदाहरण देख सकते हैं। कांग्रेस थर्ड फ्रंट या किसी भी फ्रंट को महज राजनीतिक मजे लेने के लिए समर्थन देती है। बाद में समर्थन वापसी कर ये प्रचारित करती है कि बिना कांग्रेस के कुछ संभव नहीं।
क्षेत्रीय दलों वाली समस्या
जानकारों की मानें, तो नीतीश कुमार के सियासी सपने के सबसे बड़े दुश्मनों की सूची में कांग्रेस का नाम है। कांग्रेस कभी भी खुलकर नीतीश के समर्थन में नहीं आ सकती है। इसका दूसरा बड़ा कारण, वे क्षेत्रीय क्षत्रप भी हैं। जिनकी सीधे टक्कर उनके राज्यों में कांग्रेस से है। पटना में आयोजित जेडीयू के खुले अधिवेशन में नीतीश कुमार का दर्द विपक्षी एकता को लेकर छलक पड़ा। जानकार मानते हैं कि यदि उनकी कवायद का थोड़ा सा भी असर विपक्ष पर दिखा होता,तो वे ये बात नहीं कहते कि मैं तो कोशिश में लगा हुआ हूं। अगर विपक्षी दल एकजुट नहीं हुए, तो वे समझें। हालांकि, बीजेपी से नीतीश के अलग हटने से विरोधी पार्टियां मजे जरूर ले रही हैं। उन्हें ये जरूर एहसास है कि 2024 में बीजेपी के विरोध में एक मजबूत नेतृत्व सामने खड़ा है। उसे स्वीकार करना या नहीं करना उनके हाथ में है। अब जानकार ये भी सवाल खड़े करते हैं क्या ये इतना आसान है? क्या क्षेत्रीय दल इतनी आसानी से नीतीश को अपना नेता मान लेंगे? पटना में केसीआर के साथ प्रेस कांफ्रेंस के दौरान क्या हुआ? क्या केसीआर के बयान ने ये नहीं बता दिया कि वे खुद को ही पीएम उम्मीदवार मानकर चल रहे हैं? केसीआर खुद तेलंगाना में कांग्रेस से लड़ रहे हैं। ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम से लड़ रही हैं।
‘कांग्रेस की सियासी चाल’
कांग्रेस को ये बात पता है कि नीतीश की राह आसान नहीं है। इसलिए कांग्रेस 2024 के लिए खुद के बलबूते तैयार हो रही है। अभी तक किसी भी कांग्रेस नेता ने नीतीश कुमार के नेतृत्व को लेकर सकारात्मक बयान नहीं दिया है। बिहार प्रदेश कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने नीतीश के नेतृत्व के सवाल पर गोलमोल जवाब दिया। अखिलेश सिंह ने कहा कि इसमें हम लोग क्या कहेंगे? हर बिहारी चाहेगा कि मेरे गांव का आदमी आगे बढ़े, इसमें मैं क्या कहूंगा? सियासी जानकारों के मुताबिक नीतीश कुमार इस बात से हैरान हैं कि जिस कांग्रेस ने कभी ये कहा था कि बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है। अब उनकी राह में रोड़े अटका रही है। उधर, नीतीश कुमार कांग्रेस के मेन फ्रंट में शामिल होने को लेकर कितने गंभीर हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने पार्टी महासचिव केसी त्यागी को हिमाचल चुनाव प्रसार तक में भेजा था। केसी त्यागी ने ये बात जेडीयू की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी कही। उसके बाद खुले अधिवेशन में जिस तरह से मुख्यमंत्री ने मंच से विपक्षियों को बीजेपी के खिलाफ डराया और ये कहा कि मैं कोशिश में लगा हूं, लेकिन कोई एक मंच पर नहीं आएगा, तो वो समझे।
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