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उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) तथाकथित रूप से खुद को सबसे बड़ा सेक्युलर दल बताती रही है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह को खुद को मुल्ला मुलायम तक कहलाने में परहेज नहीं रहा है। यही वजह है कि रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर सपा के कैंडिडेट की जीत लगभग तय मानी जाती रही है। रविवार को आए उपचुनाव में इन दोनों सीटों पर सपा के प्रत्याशी की हार हुई है। गौर करने वाली बात यह है कि दोनों लोकसभा सीटें मुस्लिम बाहुल्य हैं। इसके अलावा यहां यादवों का भी अच्छा खास दबदबा है। इतना ही नहीं, रामपुर सपा के सबसे बड़े अल्पसंख्यक चेहरा आजम खान का क्षेत्र है। यही वजह है कि इस सीट पर 17 बार हुए लोकसभा चुनाव में 12 बार मुस्लिम प्रत्याशी की जीत हुई है। वहीं आजमगढ़ ऐसी सीट है जहां के लोगों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बाद भी सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को अपना सांसद चुना था। इसके बाद 2019 में इस क्षेत्र के लोगों ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव को संसद भेजा था। उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव के परिवार से ही बदायूं के पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारा गया था, लेकिन उन्हें भोजपुरी ऐक्टर दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ ने हरा दिया है।
हिना शहाब ने RJD से अलग होने के दिए संकेत
सिवान के बाहुबली सांसद रहे मोहम्मद शहाबुद्दीन का कोरोना संक्रमण के चलते दिल्ली के तिहाड़ जेल में इंतकाल हो गया था। शहाबुद्दीन के परिवार का आरोप रहा है कि उनका शव बिहार लाने के लिए आरजेडी की ओर से कोई प्रयास नहीं किए गए। शहाबुद्दीन के बारे में कहा जाता रहा है कि वह आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के सबसे बड़े वफादार रहे। इतना ही नहीं लालू यादव के मुस्लिम + यादव समीकरण को सफल बनाने में शहाबुद्दीन अहम चेहरा रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जब लालू यादव और राबड़ी देवी की राजनीतिक पारी अपने चरम पर थी तब शहाबुद्दीन आरजेडी के सबसे बड़े अल्पयसंख्यक चेहरा रहे। लालू के एक इशारे पर शहाबुद्दीन किसी भी स्तर तक पहुंच जाते थे।
उनकी मौत के बाद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा की शादी में लालू के बेटे तेजस्वी यादव शामिल होने पहुंचे थे, लेकिन उसी वक्त मीडिया में खबरें आई थी कि दोनों परिवारों के मिलन के दौरान पुराने जोश खरोश की कमी सभी ने अनुभव की। रविवार मोहम्मद शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने अपने आवास पर मुस्लिम मंच कारवाने बेदारी के कार्यकर्ताओं का स्वागत कर रही थीं। इस दौरान उन्होंने कहा कि वह अभी किसी पार्टी में नहीं हैं। वह यहीं नहीं रुकीं, आगे कहा कि वह अब पूरे बिहार का दौरा करने जा रही हैं। उसके बाद कुछ बड़ा फैसला होगा। उन्होंने यह भी कहा कि अभी हम किसी पार्टी में नही हैं।
इन दोनों राजनीतिक घटनाक्रम के बाद आया ओवैसी का बयान
उत्तर प्रदेश उपचुनाव में आजमगढ़ और रामपुर में सपा प्रत्याशी की हार पर AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि समाजवादी पार्टी बीजेपी को हराने में असमर्थ है, उनके पास बौद्धिक ईमानदारी नहीं है। अल्पसंख्यक समुदाय को ऐसी अक्षम पार्टियों को वोट नहीं देना चाहिए। बीजेपी की जीत के लिए कौन जिम्मेदार है, अब, वह किसको बी-टीम, सी-टीम बताएंगे।’
इससे पहले 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी आरजेडी के ही पुराने मुस्लिम नेताओं को साथ लेकर पांच सीमांचल इलाके में पांच सीटों पर जीत दर्ज की थी। इतना ही नहीं ओवैसी की पार्टी के प्रत्याशी ने करीब 5 सीटों पर वोट काटकर आरजेडी प्रत्याशी की हार सुनिश्चित की थी। ओवैसी की पार्टी के इसी प्रदर्शन के चलते आरजेडी की अगुवाई वाली महागठबंधन बिहार में सरकार बनाने में नाकाम रही। ओवैसी कई मंच से कह चुके हैं कि आरजेडी और सपा उन्हें हल्के में लेने की गलती कर रही है। ओवैसी को गंभीरता से नहीं लेने के चलते तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचकर भी उससे वंचित रहना पड़ रहा है।
पुरानी सेक्युलर पार्टियों से दूर हो रहे हैं अल्पसंख्यक?
बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी से मुस्लिम प्रत्याशियों की जीत और यूपी उपचुनाव में सपा प्रत्याशी की हार के बाद सवाल उठने लगे हैं कि क्या अल्पसंख्यक समाज पुरानी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों से दूर हो रही हैं। ओवैसी पहले ही आजम खान और मोहम्मद शहाबुद्दीन के परिवार को अपने साथ आने का न्योता दे चुके हैं। शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब को उम्मीद थी कि लालू यादव और तेजस्वी यादव उन्हें राज्य सभा भेजेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। लालू यादव की राजनीतिक विरासत संभाल रहे तेजस्वी यादव 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार A टू Z फॉर्म्यूले पर काम कर रहे हैं। इसी के तहत उन्होंने विधान परिषद चुनाव और बिहार उपचुनाव में टिकट बंटवारे किए थे। यूपी चुनाव में अखिलेश यादव ने भी तेजस्वी यादव की ही तरह 2022 के यूपी चुनाव में सभी जाति के लोगों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया था, लेकिन वह विफल साबित हुआ था। बड़ा सवाल यह है कि तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव के A टू Z फॉर्म्यूले से अल्पसंख्यक समाज संतुष्ट है या नहीं। कहीं ऐसा ना हो कि A टू Z फॉर्म्यूले के फेर में सपा और RJD जैसी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों से अल्पसंख्यक समाज को मोह भंग ना हो जाए।
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