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बिहार को लेकर अधिक चिंतित है बीजेपी
बीजेपी बिहार के लिए अधिक चिंतित इसलिए है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव उसके लिए काफी आसान रहे। 2014 के चुनाव के वक्त नरेंद्र मोदी ने आम लोगों में उम्मीद जगायी थी। रोजगार, महंगाई पर उनके वादे और हिन्दुत्व के सबसे बड़े संरक्षक होने की उनकी छवि से उनके प्रति लोगों में अनायास आकर्षण था। बिहार में 2014 के चुनाव के वक्त आरजेडी और जेडीयू अलग-अलग मैदान में थे। लव-कुश समीकरण वाले उपेंद्र कुशवाहा और दलित वोटों के ठेकेदार माने जाने वाले राम विलास पासवान जैसे दिग्गज भी बीजेपी के साथ थे। यानी नीतीश और लालू को छोड़ कर दलित-पिछड़ों की जमात के दो कद्दावर नेता बीजेपी के सहयोगी बन गये थे। 2019 के दूसरे चुनाव में राम विलास पासवान की लोजपा ही पुरानी सहयोगी थी। नीतीश कुमार की जेडीयू फिर से बीजेपी के साथ आ गयी थी। यानी नीतीश कुमार की वजह से कुर्मी-कोइरी को लेकर बने लव-कुश समीकरण के थोक वोट और राम विलास पासवान की वजह से दलित वोट एनडीए को मिले। नतीजतन 2014 की 31 सीटों के मुकाबले एनडीए ने 2019 में 39 सीटों पर कब्जा जमा लिया था। इनमें 17 सीटों पर बीजेपी, 16 पर जेडीयू और 6 पर लोजपा ने जीत दर्ज की। लालू की झोली खाली रह गयी और कांग्रेस ने सिर्फ एक सीट से ही संतोष किया।
समीकरण बदला तो रणनीति भी बदली
अब बिहार में समीकरण बदल गये हैं। नीतीश का जेडीयू और लालू यादव का आरजेडी एक साथ हैं। कांग्रेस समेत पांच अन्य दल भी आरजेडी के महागठबंधन में शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 29 प्रतिशत था, जो 2019 में घट कर 23.6 प्रतिशत पर आ गया। 2019 में जेडीयू का वोट शेयर 21.8 प्रतिशत था। अगर बीजेपी के 2014 के 23.6 प्रतिशत वोट शेयर को आधार मानें तो फिलहाल महागठबंधन के खाते में 77 फीसदी वोट साफ दिखाई दे रहे हैं। यही वजह है कि बिहार को लेकर भाजपा काफी चिंतित है। बीजेपी के बड़े रणनीतिकार अमित शाह लगातार बिहार का दौरा कर रहे हैं।
बिहार को लेकर बीजेपी की गंभीरता समझें
गठबंधन टूटने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह 6 महीने में पांचवीं बार बिहार आये हैं। जेडीयू और आरजेडी के गढ़ माने जाने वाले सीमांचल में उनकी पहली रैली हुई थी। 2 अप्रैल को सासाराम और नवादा में उनकी सभा होनी थी। सासाराम में उपद्रव के कारण अब वे वहां नहीं जाएंगे, लेकिन नवादा जरूर पहुंचेगे। उनकी यात्राओं से इतर बीजेपी ने बिहार के दरभंगा में 28 और 29 जनवरी को प्रदेश कार्यसमिति की बैठक की। बीजेपी ने अपना प्रदेश अध्यक्ष भी बदल दिया है। संजय जयसवाल की जगह कुशवाहा समाज से आने वाले सम्राट चौधरी को अध्यक्ष बनाया गया है।
कुशवाहा वोटों पर बीजेपी का है फोकस
बीजेपी ने नीतीश कुमार के आधार वोट बैंक कुशवाहा-कुर्मी को छिटकाने की बड़ी चाल उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू से छिटका कर चली है। बिहार में यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी आबादी कोइरी जाति की मानी जाती है। नीतीश के कभी बेहद खास रहे उनकी ही जाति के राम चंद्र प्रसाद सिंह ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। यानी लव-कुश समीकरण के दो बड़े नेता अब नीतीश के दुश्मन बन गये हैं। उपेंद्र कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं। माना जाता है कि उपेंद्र कुशवाहा जिसके साथ रहते हैं, उसे अपनी जाति का वोट आसानी से शिफ्ट करा देते हैं। नीतीश के साथ रहते ही उन्होंने लव-कुश समीकरण बनाया था। 2014 में उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी के ही साथ थे। बीजेपी ने उन्हें तीन सीटें दी थीं, जिन पर उनके सभी उम्मीदवार जीते और वह केंद्र में मंत्री भी बने थे।
दलित वोटों के लिए चिराग का साथ जरूरी
चिराग पासवान जिस दलित-महादलित समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी आबादी भी बिहार में 14 प्रतिशत मानी जाती है। चिराग पासवान पहले भी बीजेपी के साथ रहे हैं। नीतीश की वजह से उन्हें कुछ दिनों के लिए एनडीए से अलग होना पड़ा था। चिराग पासवान का अपने समाज पर खासा प्रभाव है। तभी तो नीतीश कुमार कहते हैं कि असेंबली इलेक्शन में उन्हें दो दर्जन से अधिक सीटें चिराग के उम्मीदवार खड़ा करने से गंवानी पड़ी। चिराग पासवान का प्रभाव इस रूप में भी दिखता है कि 2014 और 2019 में उनकी पार्टी के उम्मीदवारों ने 6 सीटों पर जीत बरकरार रखी थी।
डेढ़ दर्जन सीटों पर उपेंद्र-चिराग का प्रभाव
बिहार की 40 सीटों में 15 ऐसी सीटें हैं, जिन पर उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवान का प्रभाव माना जाता है। दोनों यह दावा भी करते हैं कि वे अपना वोट किसी भी पार्टी को शिफ्ट करा सकते हैं। चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा अगर बीजेपी के साथ आ जाते हैं तो उन्हें ज्यादा सीटें भी नहीं देनी पड़ेंगी। उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवान के प्रभाव वाली लोकसभा की सीटों में वैशाली, हाजीपुर, जमुई, उजियारपुर, काराकाट, बांका और समस्तीपुर प्रमुख हैं। मुंगेर, मधुबनी, पूर्वी चंपारण, मुंगेर और मुजफ्फरपुर में भी इनका खासा प्रभाव है।
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