[ad_1]
कुशवाहा का जादू चलेगा क्या?
अगर सच में उपेंद्र कुशवाहा का अपनी बिरादरी पर जादू चला तो नीतीश को जिस कुशवाहा-कुर्मी (लव-कुश) वोटों का समर्थन मिलता रहा है, वह आधा से भी कम रह जाएगा। यानी नीतीश कुमार के आधार वोट बैंक में 4.5 प्रतिशत वोटों का नुकसान होगा। उपेंद्र कुशवाहा ने शुरू में नीतीश का पक्ष लेकर उनके काफी करीब थे। इसी वजह से उनकी आरजेडी से अदावत भी बोल ली। अब तो वे नीतीश कुमार के सबसे बड़े दुश्मनों में शुमार हो रहे हैं। कुशवाहा को पहले उम्मीद थी कि नीतीश के प्रति लायल होने का उन्हें लाभ जरूर मिलेगा। अव्वल तो दोबारा वे जेडीयू में अपनी पार्टी का विलय कर आये ही इसीलिए थे कि उनका राजनीतिक वनवास दूर होगा। एमएलसी बना कर नीतीश कुमार ने उनका सियासी वनवास खत्म भी किया, लेकिन महत्कांक्षा के मारे कुशवाहा इससे अधिक यानी मंत्री पद की उम्मीद भी पाले हुए थे। नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में पहली बार इसलिए मौका नहीं मिला कि 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद यानी 2021 में वे जेडीयू से जुड़े थे। इधर कुशवाहा मौके के इंतजार में थे। दूसरी बार मौका तब आया, जब नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ महागठबंधन से हाथ मिलाया। यहां भी वे मौका चूक गये।
कुशवाहा की महत्वाकांक्षा
कुशवाहा की महत्वाकांक्षा तब और हिलोर मारने लगी, जब मीडिया ने तर्क गढ़ा कि कैबिनेट विस्तार में उन्हें डिप्टी सीएम तो बनाया ही जा सकता है। यह तर्क इसलिए भी फिट बैठता था, क्योंकि सुधाकर सिंह और कार्तिकेय सिंह के इस्तीफे से मंत्रियों के दो पद ऐसे ही खाली हो गये थे। एनडीए के साथ रहते बीजेपी कोटे के दो लोग नीतीश कैबिनेट में डिप्टी सीएम बने थे। यानी अभी सिर्फ एक डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव हैं तो दूसरा पद कुशवाहा को नीतीश कुमार उनकी वफादारी की वजह से दे सकते हैं। मीडिया के इस सवाल और तर्क पर कुशवाहा इतने इतराये कि जवाब में उन्होंने ऐसी बात कह दी, जो उनके जैसे मैच्योर्ड पोलिटिशियन से उम्मीद नहीं की जाती। उन्होंने कहा कि वे राजनीति में संन्यासी बन कर सिर्फ पूजा-पाठ के लिए नहीं आये हैं।
नीतीश का मन जीतने के लिए आरजेडी से पंगा लिया
मन में महत्वाकांक्षा पाले उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार के प्रति वफादारी ऐसी निभायी कि महागठबंधन में साथ रहने के बावजूद उनका आरजेडी से पंगा हो गया। नीतीश को समझने में शायद उनसे चूक हो गयी। वैसे भी नीतीश के बारे में लोगों की आम धारणा है कि उनके मन में क्या चल रहा है, दूसरा कोई नहीं जान पाता। शायद इसी वजह से लालू प्रसाद यादव उनके बारे में महागठबंधन से हाथ मिलाने के पहले अक्सर कहा करते थे कि सबके दांत बाहर होते हैं, लेकिन नीतीश के पेट में दांत हैं। जब सुधाकर सिंह ने नीतीश कुमार को नपुंसक, शिखंडी, भिखारी जैसे शब्दों से नवाजा तो उपेंद्र कुशवाहा आपे से बाहर हो गये। उन्होंने सुधाकर पर अंकुश लगाने के लिए तेजस्वी यादव को पत्र लिखा। बाद में तो सुधाकर के साथ आरजेडी नेतृत्व की वे सार्वजनिक तौर पर आलोचना करने लगे। एक बार तो इससे भी आगे निकल गये और आरजेडी पर आरोप मढ़ दिया कि परिवार के लोगों को बचाने के लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने बीजेपी से सांठगांठ कर ली है। सुधाकर को लेकर उपेंद्र की आलोचना तक तो तेजस्वी चुप रहे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व के बीजेपी से सांठगांठ की बात पर तेजस्वी भड़क गये। हालांकि तेजस्वी ने अपनी नाराजगी सार्वजनिक नहीं की। बहरहाल, उपेंद्र कुशवाहा अपनी तमाम कवायद से नीतीश के प्रति अपनी लफादारी साबित करना चाहते थे, ताकि उन्हें इसका सुफल मिले, पर सुफल के बजाय वे दुर्गति को प्राप्त हो गये हैं।
नीतीश ने कुशवाहा की उम्मीदों पर फेर दिया पानी
नीतीश कुमार के खिलाफ आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह की बयानबाजी पर कड़ी आपत्ति जता कर कुशवाहा ने नीतीश के प्रति वफादारी तो निभायी, लेकिन जब फल का मौका दिख रहा था तो नीतीश ने धोखा दे दिया। नीतीश तक जब यह बात पहुंची कि संभावित मंत्रिमंडल विस्तार में कुशवाहा डिप्टी सीएम का सपना पाले हुए हैं तो उन्होंने इसे बकवास बताया। उन्होंने साफ कर दिया विस्तार होगा भी तो जेडीयू कोटे से अब कोई मंत्री नहीं बनेगा। दो डिप्टी सीएम का तो सवाल ही नहीं उठता। महागठबंधन के घटक दलों को आनुपातिक ढंग से बर्थ मिलेंगे। उसके बाद से ही कुशवाहा की नाराजगी नीतीश से बढ़ गयी। इसी बीच वे दिल्ली गये तो बवाल मच गया।
एक जगह लंबे समय तक नहीं टिक पाते हैं उपेंद्र कुशवाहा
कुशवाहा ने 38 साल के राजनीतिक जीवन में इतने दल बदले हैं कि अब लोग यहीं कहते हैं कि वे एक दल में अधिक दिन तक नहीं टिक पाते। कुशवाहा का अब तक आधा दर्जन पार्टियों में आना-जाना होता रहा है। उनके जेडीयू छोड़ने की घोषणा पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा भी कि उन्हें अब स्थिर हो जाना चाहिए। कुशवाहा का राजनीतिक जीवन 1985 में शुरू हुआ। राजनीति में आने से पहले वे लेक्चरर की नौकरी कर रहे थे। 1985 से 1988 तक वे युवा लोक दल के प्रदेश अध्यक्ष रहे। बाद में वे जनता दल का हिस्सा बने। जनता दल से टूट कर बनी समता पार्टी में वे 1994 से लेकर 2002 तक रहे। समता पार्टी के टिकट पर पहली बार वर्ष 2000 में वे जंदाहा सीट से बिहार विधानसभा के सदस्य बने। 2002 से 2004 तक वे विधानसभा में विधायक दल के उपनेता रहे। बाद में उन्हें पार्टी ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बना दिया। जब जेडीयू बना तो 2010 में कुशवाहा राज्यसभा गये। वहां वे 2013 तक रहे। कुशवाहा ने 2014 में अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनायी और बीजेपी से मिल कर एनडीए का हिस्सा बन गये। वे एनडीए में रहते हुए केंद्रीय मंत्री भी बने। एनडीए के बैनर तले 2014 के लोकसभा चुनाव में रालोसपा के टिकट पर कुशवाहा समेत तीन लोग चुने गये। 2019 में उन्हें बीजेपी ने अपेक्षित सीटें नहीं दीं तो वे एनडीए से अलग हो गये। इस बार न वे जीते और न उनके उम्मीदवार। साल भर वनवास के बाद वे 2021 में फिर जेडीयू का हिस्सा बन गये। इस बार तो उन्होंने अपनी पार्टी का विलय जेडीयू में कर दिया। अब जेडीयू से जुदा होकर उन्होंने अपनी नयी पार्टी की घोषणा कर दी है।
[ad_2]
Source link