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इन फूलों को कोई देख न ले, इसलिए छिपाकर करते हैं खेती। पुलिस भी विस्तार देख चौंकी।
– फोटो : अमर उजाला
विस्तार
इन फूलों को दूर से देखकर मन झूम जाता है, लेकिन इसके फल के सेवन से मन घूम जाता है। बहुत सारे किसान जानते-समझते भी हैं। लेकिन, लोभ क्या नहीं कराता! जो नहीं जानते हैं, उन्हें पोस्तादाना बताकर खेती कराई जाती है। मतलब…साम, दाम, दंड, भेद- किसी भी तरीके से बिहार के कुछ खास हिस्सों में इसकी खेती कराई जा रही है। 10 एकड़ की फसल पर 20 करोड़ की शुरुआती कीमत है तो लोग पुलिस-कानून का डर भूलकर भी खेती कर रहे हैं इसकी। दूर से खूबसूरत दिखने वाला यह पौधा है अफीम का। और, खेती करा रहे हैं नक्सली। बदलती परिस्थितियों में नक्सलियों ने अपनी अर्थव्यवस्था को ट्रैक पर रखने के लिए यह रास्ता अपनाया है। बिहार में नक्सल प्रभावित औरंगाबाद जिले में पुलिस ने अरसे के बाद माओवादियों की इस इकोनॉमी पर करारा प्रहार किया है।
जंगली-पहाड़ी इलाके में ऐसी अर्थव्यवस्था
पुलिस ने मदनपुर थाना के सुदूरवर्ती दक्षिणी इलाके में बादम और देव प्रखंड में ढिबरा थाना के छुछिया, ढाबी एवं महुआ गांव में करीब 10 एकड़ में लगी अफीम की खेती को तहसनहस किया है। बर्बाद की गई अफीम के फसल की कीमत 20 करोड़ आंकी जा रही है। फसल के तैयार होने पर इससे भी अधिक आमदनी हो सकती थी। पुलिस ने ग्रीन अफीम भी बरामद की है। औरंगाबाद की पुलिस अधीक्षक स्वपना गौतम मेश्राम ने मंगलवार शाम बताया कि मदनपुर थाना के बादम और देव प्रखंड में ढिबरा थाना के छुछिया, ढाबी एवं महुआ गांव के जंगली इलाके में अफीम की खेती किए जाने की जानकारी मिली थी, लेकिन अंदाजा नहीं था कि इन जंगली-पहाड़ी इलाके में करीब 10 एकड़ में इस अत्यधिक नशीले पदार्थ की ऐसी अर्थव्यवस्था दिखेगी।
छिपी थी फसल, अंदर अफीम निकालने की तैयारी
अफीम की खेती को लोगों की नजर से छिपाने के लिए इसके चारों ओर कुछ दूरी तक अधिक उंचाई वाली फसलें लगाई जाती हैं। मदनपुर थानाध्यक्ष शशि कुमार राणा ने बताया कि अफीम की फसल को चारों ओर से मक्का और अरहर की फसलों से छिपा कर रखा गया था। इन फसलों के बीच अफीम की फसल लहलहा रही थी। जब इनमें मोटी-मोटी अफीम की गांठें उभर आई थीं। मतलब कि यह जल्द ही तैयार होने वाली फसल थी। गांठों में चीरा लगाया गया था। इन्हीं चीरों वाली गांठ से निकलने वाले चिपचिपे पदार्थ को जमा कर अफीम तैयार किया जाता है।
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