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इससे पहले लालू यादव छपरा से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। फिर चार महीने बाद ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। 324 सीटों में 132 सीटें जनता दल को मिली और सहोगी सीपीआई के साथ स्पष्ट बहुमत हासिल हो गया। फिर लालू भागे-भागे पटना पहुंचे और सीएम की रेस में शामिल हो गए। सत्ता के लिए असली लड़ाई परिणाम घोषित होने के बाद ही आरंभ हुई। लालू को लग रहा था कि वे विधानसभा में विपक्ष के नेता रह चुके हैं और पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह के विश्वासपात्र भी, इसलिए सीएम का पद उन्हें थाली में परोस कर दे दिया जाएगा। पर ऐसा था नहीं। मांडा के राजा अब लालू का समर्थन नहीं कर रहे थे। वे एक दलित नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के इच्छुक थे। वीपी सिंह की दलील थी कि लालू तो विधानसभा के सदस्य भी नहीं हैं, फिर सीएम बनने का सवाल ही नहीं उठता। उनके आदमी थे—रामसुंदर दास, जो सन् 1979-80 के संक्षिप्त कार्यकाल में मुख्यमंत्री रह चुके थे। अजीत सिंह ने वीपी सिंह का समर्थन किया। वीपी सिंह ने रामसंदुर दास को विधायक दल का नेता चुनने में मदद के लिए अजीत सिंह को पटना भेज दिया। रामसुंदर दास की टीम को मजबूत करने के लिए जॉर्ज फर्नांडीस और सुरेंद्र मोहन को भी पटना भेजा गया।
जब दो यादव तीसरे की मदद करने पटना पहुंचे
लेकिन लालू यादव आलाकमान के फरमानों को सुनने के मूड में नहीं थे। लालू जनता दल की गुटबाजी का सहारा लेकर एक गहरी चाल चल चुके थे। उन्होंने विधायक दल का नेता चुनने के लिए चुनाव कराने की मांग कर दी। उन्हें देवीलाल का समर्थन मिल रहा था। बुजुर्ग जाट ने दो यादवों शरद और मुलायम सिंह को संकटग्रस्त तीसरे के समर्थन का प्रचार करने भेजा दिया। इधर लालू ने इस बड़ी चुनौती से लड़ने के लिए खुद एक बड़ा मोर्चा खोल दिया। उन्होंने चंद्रशेखर से मदद माँगी। वही चंद्रशेखर जिसका विरोध लालू करते आए थे। पर लालू ने विरोध करते हुए भी निजी रिश्ते बनाए रखने की नीति अपनाई थी जिसाक फायदा मिला। चंद्रशेखर को मनाने के लिए लालू ने उनके दर पर जाकर कहा ….यह राजा हमारी संभावनाओं को खत्म करने पर तुला हुआ है.. उन्होंने लगभग एक छोटे बच्चे की तरह शिकायत की, ‘‘कृपया हमारी मदद कीजिए, वरना वीपी सिंह अपने आदमी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देंगे। वीपी सिंह के धुरविरोधी चंद्रशेखर ने लालू को आश्वासन दे दिया।
तीन वोट से लालू जीते पर आ गया नया ट्विस्ट
जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहाँ अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए। रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार नहीं थे। वे वहाँ सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। लालू यादव ने विरोधी वोटों को बांटने की इसी रणनीति के सहारे आगे भी बिहार पर राज किया। रघुनाथ झा को अपने मिशन में अच्छी सफलता मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए। हरिजनों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। लालू मामूली अंतर से जीत गए। उन्हें पिछड़ी जाति के अधिकांश वोट मिल गए। लेकिन अभी तो और नाटक होने बाकी था। विधायक दल में लालू यादव की चतुराई से तिलमिलाए अजीत सिंह ने उन पर जवाबी हमले की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। वे चुनाव में लालू यादव को हराने में असफल रहे थे, लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुँचने की राह में वे अभी भी उनका पसीना बहा सकते थे। वे चुपचाप बिहार के राज्यपाल मोहम्मद यूनुस सलीम के पास गए जो लकदल से जुड़े रहे थे।
अजीत सिंह ने गवर्नर को दिल्ली बुला लिया। गुस्से में लाल यादव को भनक लग गई थी। वो गवर्नर को खदेड़ते हुए पटना एयरपोर्ट पहुंच गए लेकिन तब तक मोहम्मद यूनुस का प्लेन टेक ऑफ कर चुका था। तब लालू ने एक बार फिर अपने आका देवीलाल को फोन घुमाया.. किस बात के नंबर टू हैं आप। हम इलेक्टेड सीएम हैं और ये अजीत सिंह के कहने पर गवर्नर ओथ दिलाए बिना भाग गया। तब देवीलाल की पकड़ लोक दल में तगड़ी थी। उन्होंने मैनेज करते हुए गवर्नर को तुरंत पटना लौटने को कहा। आखिरकार 10 मार्च, 1990 के दिन ऐतिहासिक गांधी मैदान में लालू की ताजपोशी हो गई। इसी के साथ लालू बिहार में और शरद यादव दिल्ली में एक दूसरे की राजनीति चमकाने लगे।
लालू यादव की पॉलिटिक्स साफ रही। जो राह का रोड़ा बनेगा वो जाएगा। नीतीश कुमार तो चार साल बाद ही समता पार्टी बनाकर अलग हो गए। जब जुलाई, 1997 में जनता दल के अध्यक्ष पद का सवाल आया तब शरद यादव ने लालू को चुनौती दी। मामला सुप्रीम अदालत तक गया। लालू को पता चल गया कि दाल नहीं गलने वाली। बस, पार्टी दो फाड़ कर दी। अधिकांश सांसदों के साथ उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल बना लिया। सात साल की दोस्ती टूटने के बाद शरद यादव ने बदला लेने की ठानी। दो साल बाद उन्होंने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी में विलय कर लिया। जनता दल यूनाइडेट अस्तित्व में आया पर तीर का वही निशान लालू पर वार करता रहा। 2005 में लालू की पार्टी बिहार की सत्ता से बेदखल हो गई। फिर आठ साल बाद 2013 में नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने के सवाल पर जब नीतीश कुमार एनडीए से हटे और लालू यादव से सटे तो शरद यादव ने अहम भूमिका निभाई। इसलिए जब नीतीश ने लालू की मदद से 2015 में सरकार बनाई और लगभग आधे कार्यकाल के बाद अचानक भ्रष्टाचार के सवाल पर अलग हो गए तो शरद ने विरोध किया। नीतीश 2014 में मोदी लहर को रोकने में नाकाम रहे। लालू के साथ के बावजूद देश भर में बीजेपी की आंधी थी जो यूपी की 2017 की जीत से साबित हो गई थी। नीतीश समझ गए थे कि गैर भाजपाई दलों का उन्हें पीएम मटीरियल बताना किसी काम का नहीं है। हालांकि शरद यादव आरजेडी के सिंबल पर 2019 में मधेपुरा भी नहीं जीत पाए और अगले साल उनकी बेटी भी विधानसभा चुनाव हार गई। लिहाजा विलय ही एक रास्ता था।
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