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कड़ी सुरक्षा के बावजूद इंदिरा-राजीव की हुई थी हत्या
आप समझ सकते हैं कि पीएम की सुरक्षा कितनी चौकस रहती होगी। इसके बावजूद दुर्भाग्यवश हमने दो प्रधानमंत्री खोए। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या तमाम चौकसी के बावजूद हो गई थी। दोनों अपने समय में देश के पीएम थे। सुरक्षा का इंतजाम ऐसा कि परिंदा भी पर न मार सके। देश का शायद ही कोई राज्य अपवाद हो, जहां पुलिस सुरक्षा रहने के बावजूद किसी की हत्या नहीं हुई हो।
विधायक-मंत्री की भी सुरक्षा के बावजूद हुई है हत्या
25 जनवरी 2005 की वह घटना शायद ही कोई भूल पाया होगा, जब विधायक राजू पाल की हत्या इसी अतीक-अशरफ ने प्रयागराज में 5 किलोमीटर दौड़ाने के बाद कर दी थी। उन्हें भी तो पुलिस की सुरक्षा जरूर ही मिली होगी ! राजू पाल हत्याकांड में विधायक उमेश पाल गवाह थे। कुल 9 गवाहों में एक उमेश पाल भी थे। माना जाता है कि गवाही न देने के लिए उमेश की हत्या की गई। इस साल 24 फरवरी को उनकी हत्या हुई। आरोप अतीक-अशरफ पर ही लगे।
2005 में ही हुई थी विधायक कृष्णानंद की हत्या
यह 25 नवंबर 2005 की घटना है। गाजीपुर के मोहम्मदाबाद क्षेत्र से बीजेपी विधायक कृष्नांद राय की हत्या भी 2005 में ही हुई थी। उसमें विधायक और माफिया माने जाने वाले मुख्तार अंसारी का नाम आया था। उसके खिलाफ ही मामला दर्ज हुआ था। क्या उन्हें सरकार ने पुलिस सुरक्षा नहीं मुहैया करायी होगी ! मुख्तार अंसारी ने गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या कर सनसनी मचा दी थी। उसी साल विधायक राजू पाल की भी हत्या हुई थी। फर्क इतना ही था कि एक की हत्या में अतीक-अशरफ का नाम आया तो दूसरे में मुख्तार अंसारी का नाम। राय की हत्या के लिए मुख्तार अंसारी और उसके गुर्गों ने एके-47 से 500 राउंड फायरिंग की थी। भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पोस्टमार्टम में राय के शरीर से 67 गोलियां निकली थीं।
बिहार में हुई थी मंत्री बृज बिहारी प्रसाद की हत्या
और तो और, बिहार में 13 जून 1998 को पटना के एक अस्पताल में तत्कालीन विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की भी हत्या हुई थी। क्या मंत्री रहते उन्हें पुलिस सुरक्षा की कोई कमी रही होगी ! 2001 में यूपी के दर्जा प्राप्त मंत्री संतोष दूबे की कानपुर के शिवली थाना इलाके में विकास दूबे ने हत्या कर दी थी। विकास दूबे के खिलाफ तब तकरीबन 5 दर्जन केस दर्ज थे। विकास दूबे कितना खूंखार था कि कानपुर में जब पुलिस से मुठभेड़ हुई तो उसमें 8 पुलिस वाले मार गए थे। तब भी यूपी में बीजेपी की सरकार थी और राजनाथ सिंह सीएम थे। श्रम संविदा बोर्ड के चेयरमैन के नाते संतोष शुक्ला को राज्यमंत्री का दर्जा मिला हुआ था।
शक की सुई क्यों जा रही है यूपी CM के योगी पर
विपक्ष को इस हत्याकांड में साजिश की बू इसलिए आ रही है कि साबरमती जेल से अतीक को 1200 किलोमीटर दूर सुनवाई के लिए लाने में 46 सुरक्षा कर्मी तैनात थे तो अस्पताल में जांच के लिए ले जाने के वक्त वे सुरक्षा कर्मी कहां थे ? या फिर उस वक्त सुरक्षा कर्मी घटा दिए गए थे, जिससे बदमाशों को हत्या का मौका मिल गया ? जब अतीक-अशरफ पर फायरिंग हो रही थी तो किसी सुरक्षा कर्मी ने प्रतिरोध क्यों नहीं किया ? किसी अभियुक्त से क्या पत्रकारों को बातचीत करने की इजाजत होती है ? अगर नहीं तो पत्रकारों से अतीक कैसे बात कर रहा था ? रात में 10 बजे हेल्थ चेकअप के लिए अतीक को अस्पताल क्यों ले जाया गया ? अगर सुरक्षा कारणों से पुलिस ने एहतियातन रात का समय चुना तो पत्रकारों को इसकी भनक कैसे लगी ? ये सवाल उठ रहे हैं।
जांच पूरी होने तक इंतजार करना ही बेहतर होगा
जांच पूरी होने तक इंतजार करना ही बेहतर होगा। यूपी सरकार ने अतीक-अशरफ के हत्या मामले की त्रिस्तरीय जांच के आदेश दिए हैं। जांच रिपोर्ट आने तक दोष मढ़ना न उचित है और न तर्कसंगत। विपक्ष एकतरफा योगी सरकार की विफलता तो बता ही रहा है, इसमें सरकार की साजिश का भी अंदेशा जता रहा है। लेकिन यह भी संभव है कि जांच रिपोर्ट आने पर पूरा परिदृश्य ही बदल जाए। यह इसलिए भी जरूरी है कि कई तरह की चर्चाएं अभी हो रही हैं। कोई इसे समाजवादी पार्टी से जोड़ कर बता रहा है तो कुछ दूसरी बातें कह रहे हैं। तात्कालिक विषयों पर टिप्पणी करने वाले और लंबे समय तक बैंक में रहे अंचल सिन्हा कहते हैं- आज जिन लोगों को इस घटना पर विलाप करने का मौका मिला है, दुर्भाग्य से, अगर उनके किसी अपने के साथ अतीक ने कुछ किया होता, तब देखते, उनकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होती ? यह भी तो हो सकता है कि अतीक किसी खास नेता का नाम बताने वाला था ? ऐसे में अगर उस नेता ने ही अतीक की हत्या कराई हो !
(लेखक ओमप्रकाश अश्क स्वतंत्र पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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