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आनंद मोहन को लेकर नीतीश कुमार का बड़ा दांव
दरअसल, उस समय नियम था कि 14 वर्ष की सजा काट चुका व्यक्ति जिसका चरित्र बहुत अच्छा है उसकी स्थिति का आंकलन कर छोड़ा जा सकता है। हालांकि, तब उस समय की सरकार ने क्लॉज लगाया था। जिसमें जोड़ा गया कि जेल में बंद वैसे कैदी जिसने किसी लोकसेवक की हत्या की हो या ऐसे मामलों में दोषी है तो उसे यह छूट नहीं मिलेगी। राजनीतिक गलियारों में तब भी ये चर्चा थी कि ये संशोधन आनंद मोहन को केंद्र में रख कर किया गया था। जिससे आनंद मोहन जेल से बाहर किसी भी हाल में नहीं आ सकें।
नीतीश कुमार ने दृढ़ मन से चली है बड़ी चाल!
अब 10 अप्रैल 2023 को फिर से जेल मैनुअल में संशोधन किया गया। इस बार भी इस फैसले के केंद्र में आनंद मोहन ही थे। ऐसे में इतना तो मानना पड़ेगा कि आनंद मोहन का व्यक्तित्व (नकारात्मक या सकारात्मक) नीतीश कुमार को प्रभावित करता था। यह भी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राजनीति में ऐसे कई मोड़ आए जहां नीतीश कुमार और आनंद मोहन जुड़ते और बिछड़ते रहे हैं। ये वही आनंद मोहन हैं जो समता पार्टी से सांसद भी थे। साल 1999 और 2000 की बात करें तो अटल बिहारी वाजपेयी के साथ गठबंधन बनाने की बैठक में नीतीश कुमार थे तो आनंद मोहन भी बिपीपा की हैसियत से साथ थे।
क्या है जेल मैनुअल के संशोधन का सियासी निहितार्थ
पार्टियां खुलकर बोलें या नहीं लेकिन राजनीतिक गलियारों में इस चर्चा को बल मिल रहा कि नीतीश कुमार सरकार के इन फैसलों के केंद्र में राजपूत वोटों की गोलबंदी ही है। जेडीयू की कोशिश बीजेपी के विरुद्ध राज्य में एक मजबूत माहौल बनाना है। इस बात की सार्थकता ऐसे समझें कि बीजेपी के राजपूत नेता राजीव प्रताप रूडी और अमरेंद्र प्रताप लगातार आनंद मोहन के न केवल समर्थन में उतरे बल्कि पार्टी ज्वाइन करने का आमंत्रण भी दिया। यह तो बिहार का हर राजनीतिज्ञ जानता है कि सवर्ण वोट आंकड़ों में भले कम हों पर माहौल बनाने में इनका जवाब नहीं। आनंद मोहन की रॉबिनहुड छवि या उनकी दबंगता जाति के अलावा आस-पास की अन्य जातियों पर भी प्रभाव डालेगी। नीतीश कुमार जिस विपक्षी एकता की मुहिम में निकले हैं उसमें पड़ोसी राज्यों में भी आनंद मोहन कारगर हो सकते हैं।
अब सवाल ये कि जी. कृष्णैया अगर हिंदी पट्टी के होते तो?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यह जानते हैं कि कब क्या करना है? यहां तक कि डैमेज कंट्रोल के भी माहिरों में शुमार किए जाते हैं। यूं ही नहीं उन्हें चाणक्य कहा जाता है। यह मेरा अपना ओपिनियन है कि जी. कृष्णैया हिंदी पट्टी के भी होते तो नीतीश कुमार का यही निर्णय होता। ऐसा इसलिए क्योंकि कई जातियों में बंटे दलित मतों से ज्यादा भरोसा राजपूत वोटों की गोलबंदी पर है। बिहार की ही बात करें तो दलितों का कोई एक नेता है क्या? पासवान के लिए चिराग पासवान हैं तो मांझी जाति के जीतनराम मांझी। बीएसपी एक बड़ा फैक्टर है जिसका जो जातीय आधार है उसकी नेता मायावती हैं। सो, अगर नीतीश कुमार को वोटों की राजनीति की दृष्टि से निर्णय करना होता तो वे खंड-खंड में बंटे दलित के बदले राजपूत वोट को ही साधने की कोशिश करते।
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