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Upendra Kushwaha Vs Nitish Kumar : अपने 38 साल के राजनीतिक करियर में उपेंद्र कुशवाहा को चारों सदनों का सदस्य रहने का सौभाग्य मिला है। बिहार में उनके अलावा नागमणि, लालू और सुशील मोदी, तीन ही ऐसे लोग हैं, जिनको यह अवसर प्राप्त हुआ है। इस कामयाबी के लिए उन्हें तकरीबन आधा दर्जन पार्टियां बदलनी पड़ीं।
चारों सदनों के सदस्य रहे हैं कुशवाहा
उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक करियर 1985 से शुरू हुआ। उन्होंने लेक्चरर की नौकरी छोड़ कर पॉलिटिक्स को नया करियर बनाया। 1985 से 1988 तक युवा लोकदल के वे स्टेट सेक्रेट्री रहे। उसके बाद वे जनता दल का हिस्सा बन गये और 1988 से 1993 तक वे युवा जनता दल के नेशनल जनरल सेक्रेट्री की भूमिका में रहे। 1994 से 2002 तक वे समता पार्टी का हिस्सा रहे। पहली बार सन 2000 में वे समता पार्टी के टिकट पर बिहार के वैशाली जिले की जंदाहा सीट से एमएलए चुने गये। 2002 से 2004 तक वे बिहार विधानसभा में पार्टी विधायक दल के उपनेता रहे। 2004-05 में उन्हें पार्टी ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बना दिया। समता पार्टी जब जेडीयू के रूप में बदली तो 2010 में वे राज्यसभा भेजे गये, जहां 2013 तक रहे। 2014 में उन्होंने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बना ली और एनडीए का हिस्सा बन कर लोकसभा का चुनाव लड़े। उनके साथ उनकी पार्टी के टिकट पर दो और लोग चुने गये। अपनी तीन सीटों की भागीदारी के साथ वे नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री बनाये गये। कुछ दिन के लिए एनसीपी के साथ भी रहे। 2021 में वे फिर जेडीयू के साथ आ गये और उन्हें राज्यपाल कोटे से एमएलसी बना दिया गया। इस तरह उपेंद्र कुशवाहा बिहार के उन नेताओं में शुमार हो गये, जिन्हें चारों सदनों का सदस्य होने का गौरव प्राप्त है। चारों सदनों का सदस्य रहने वाले वे बिहार के चौथे नेता हैं। इससे पहले नागमणि, लालू प्रसाद यादव और अभी सुशील मोदी को यह गौरव प्राप्त है।
रालोसपा का विलय कर जेडीयू में आये थे
बीजेपी से सीट शेयरिंग में अनबन होने पर कुशवाहा ने 2018 में एनडीए का साथ छोड़ दिया। 2019 का लोकसभा चुनाव उनकी पार्टी ने अपने दम पर लड़ा, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाये। उसके बाद वे आरजेडी से सटे, लेकिन वहां भी विधानसभा सीट बंटवारे को लेकर उनकी बात नहीं बनी। तब उन्होंने बीएसपी और एआईएमआईएम के साथ गठबंधन बनाया। खुद गठबंधन के सीएम फेस बने। दुर्भाग्यवश साथी दलों को सीटें तो मिलीं, लेकिन खुद कुशवाहा खाली हाथ रह गये। आखिरकार फिर जेडीयू के शरण में आ गये। 14 मार्च 2021 को उनकी पार्टी जेडीयू में शामिल हो गयी। जिस दिन यह कार्यक्रम होना था, उस दिन कुशवाहा से पहले ही नीतीश कुमार पार्टी दफ्तर पहुंच गये थे। दूसरे दर्जे के नेता कुशवाहा की आगवानी करने बाहर खड़े थे। अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय करते वक्त कुशवाहा ने इसे राज्य और देश हित में बताया था।
नीतीश को अपना बड़ा भाई बताया था
कुशवाहा अब बड़े भाई से हिस्सा मांगने की जो बात कह रहे, उसके पीछे की कहानी यह है कि जब उनकी पार्टी का जेडीयू में विलय हो रहा था, तब उन्होंने कहा था- ‘नीतीश कुमार मेरे बड़े भाई की तरह हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से उनका सम्मान करता हूं।‘ कुशवाहा 2013 में जेडीयू से अलग हुए थे। 2014 में वे एनडीए में शामिल हुए। इस बीच नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ आरजेडी से हाथ मिलाया। 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी ने 23 सीटों पर चुनाव लड़ कर सिर्फ तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2018 में उन्होंने एनडीए को भी बाय बोल दिया। 2019 का लोकसभा चुनाव उनके लिए निराशाजनक रहा, खुदे भी हारे। 2020 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमायी। इस बार भी धोखा खा गये। अंततः 2021 में जेडीयू के शरणागत हुए।
इंतजार के बावजूद बिहार में मंत्री नहीं बने
2004 में नीतीश के समर्थन से वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने। तभी से उनके मन में सीएम का सपना कुलाचें मारने लगा था। उपेंद्र कुशवाहा का दुर्भाग्य भी साथ ही चलता रहा है। 2004 में नेता प्रतिपक्ष बनने पर उन्हें भरोसा था कि वे एक दिन सीएम, डिप्टी सीएम या कम से कम मंत्री जरूर बनेंगे। 2005 में यह संभव हो सकता था, लेकिन वे चुनाव हार गये थे। जेडीयू-बीजेपी की सरकार तो बनी, लेकिन उन्हें तत्काल मंत्री बनाना संभव नहीं था। 2021 में एमएलसी बनने के बाद कुशवाहा को उम्मीद थी कि जब कभी नीतीश कुमार मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे, तो उन्हें मंत्री जरूर बनाया जायेगा। दुर्भाग्य से बीजेपी के साथ रहते इस इंतजार में एक साल गुजर गया। बीजेपी का साथ छोड़ नीतीश जब महागठबंधन के साथ चले गये, तब कुशवाहा के मंत्री बनने की प्रबल संभावना थी। पर, यहां भी भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। इस बार संभावित मंत्रिमंडल विस्तार के मद्देनजर मीडिया ने उनके मन में डिप्टी सीएम का ख्वाब जगा दिया। तर्क भी पुख्ता था कि जब बीजेपी के साथ रहते नीतीश दो डिप्टी सीएम बना सकते हैं तो इस बार भी संभव है। जब नीतीश ने इस संभावना को खारिज कर दिया तो अब उनकी खीझ बाहर आनी स्वाभाविक थी। बहाने भले दूसरे हैं, लेकिन उनकी नाराजगी का असली कारण उनको मंत्री पद नहीं मिल पाना है।
कैसा दिखता है कुशवाहा का भविष्य
अब तो यह तय है कि उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू में नहीं रह पायेंगे। खुद जायें या जाने पर जेडीयू उन्हें मजबूर कर दे। ऐसे में उनके सामने सिर्फ बीजेपी का घर दिखता है। बीजेपी भी उन्हें महज जेडीयू के एक नेता के रूप में शामिल करायेगी। ऐसे में कुशवाहा को 2014 की तरह बीजेपी भाव देगी, इसमें संदेह लगता है। उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराना होगा। कुशवाहा के सामने बीजेपी में अपने को साबित करने के लिए टास्क भी टफ होंगे। उन्हें जेडीयू को कमजोर करने के लिए उसे तोड़ना होगा। साथ ही वैसे तमाम काम करने होंगे, जिससे जेडीयू कमजोर हो। अभी जो बातें वे कह रहे हैं, उसे जेडीयू को कमजोर करने की दिशा में बढ़ते कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। शायद नीतीश इसे भांप चुके हैं। इसीलिए बार-बार उनको चले जाने के लिए ललकार रहे हैं।
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