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रोमांचक था नजारा
हमारे जैसे बच्चों के लिए ये गांधी सेतु 1995-96 में दर्शनीय स्थल भी हुआ करता था। पिता जी अक्सर अपनी स्कूटर से पूरे परिवार के साथ इस पुल पर ले जाया करते थे। तब इस पुल का नजारा अद्भुत हुआ करता था। मेरी निजी राय में ये नजारा आज से कई गुना बेहतर जरूर हुआ करता था। तब गंगा का फैलाव अब से कहींं ज्यादा था। अब सिल्ट और बालू की वजह से गंगा उथली सी हो गई है। गहराई ऊपर से ही डराने वाली लगती थी। शाम के वक्त गंगा के पानी से छनकर आती ठंडी हवा… डूबते सूरज की लालिमा…अपने घोंसलों तक जाते बगुलों को देखना आज भी याद आता हैं। मगर वो शाम कहीं खो गई थी। करीब एक दशक से न तो यहां खड़े होने की जगह नजर आई और न वो पहले जैसा सुकून नजर आया। पुल की हालत भी ऐसी हो गई कि वहां खड़े होना तो दूर गुजरना भी खतरनाक हो गया था। पुल के बीच में खड़े होने पर कभी विश्व प्रसिद्ध चिनिया और सिंगापुरी केले की खेती का नजारा अद्भुत हुआ करता था। मीलों दूर तक खेती नजर आती थी।
हमारे लिए तो ऐसा था गांधी सेतु
गांधी सेतु मेरे लिए कौतुहल का विषय तब से था, जब इस पुल पर इतनी गाडि़यांं नहीं चला करती थीं। तब ठेले और साइकिल से चलने वाले ज्यादा थे। मगर ट्रकों की रफ्तार ज्यादा हुआ करती थी। तब तेज रफ्तार से गुजरने पर पुल हल्का झूलता था। छह किलोमीटर का ये सफर ठंडी हवा, मीलों तक केले की खेती आज भी याद आती है। करीब छह किलोमीटर का ये सफर बचपन में रोमांचक हुआ करता था। पेशे से जर्नलिस्ट मेरे पिता जी को भी हमें घुमाने की जिद पूरी करने का मौका नहीं मिल पाता था। लेकिन बच्चे पिता के काम को कहां समझते थे! जिद होती थी। मगर कई बार हमारी शाम यहां जरूर हुई।
वहीं, बगुलों वाली शाम आज भी हमारे जहन में बसी हुई है। फिर पटना छूट गया था। हम भी कुछ बड़े हो गए थे। लेकिन पटना गांधी सेतु से रिश्ता टूटा नहीं था। डूबते सूरज की लालिमा और घोंंसलों को जाते बगुलों और दूसरे पक्षियों को गांधी सेतु के बीच खड़े होकर देखने का सुकून खींच लाता था। लेकिन अब पिता जी की बजाज प्रिया स्कूटर की जगह दोस्तों की स्कूटी, मोपेड और बाइक ने ले ली थी। वो भी घर में झूठ बोलकर ली हुई। इस विशाल पुल को बालमन मानव सभ्यता का दुर्लभ निर्माण मान चुका था। जिसे बार-बार देखने और इसके करीब होने का एहसास रोमांचक था।
डरावना हो गया था वो सुहावना अनुभव
अकेले कहीं जाने की हिम्मत जुटा पाने तक (2005-07) पुल जर्जर हो चुका था। कई जगह से लोहे के गार्डर्स झांकने लगे थे। पुल की बाउंड्री जगह-जगह से टूट गई थी। अब पुल के किनारों पर खड़ा होना खतरनाक हो चुका था। लगता था कभी भी ये टूट सकती है। पुल की सड़क पर गड्ढे बन गए थे। ज्वाइंट इतने खराब हो गए थे कि गंगा नदी इन प्वाइंट्स से ही नजर आने लगी थी। अब ट्रकों के गुजरने से पुल थर्रा उठता था। इसके साथ ही हमारा किशोर मन भी। क्योंकि नीचे गहराई और ऊंचाई दोनों थी। वो दिन भी याद आता जब इस पुल पर जाने की जानकारी घर पर होने की वजह से खूब डांंट पड़ी थी। तब से उधर जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। दरअसल, गंगा नदी पर बनी ये उत्तर बिहार की लाइफ लाइन अपनी जिंदगी की जंग लड़ रही थी।
फिर से लौटेगी वही शाम
करीब चार दशक तक सामान्य ज्ञान की किताब में गांधी सेतु एशिया के सबसे लंबा सड़क का पुल था। जो 2016 तक इतना जर्जर हो चुका था कि इस पर चलना खतरनाक हो चुका था। ये पुल भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया था और एक शासन काल के दौरान ये पुल अपनी अंतिम सांस गिनने को मजबूर था। कई बार इसकी मरम्मती का काम भी हुआ मगर बार-बार पुल खराब ही हो रहा था। तब जाकर केंद्र सरकार की मदद से इस पुल के सुपर स्ट्रक्चर रिप्लेसमेंट परियोजना बनाई गई। इस पुल का निमार्ण कार्य 2017 में शुरू किया गया। इसे 2020 तक पूरा हो जाना था।
दो साल की देरी से ही सही मगर अब ये पुल बन कर तैयार है। जिसका नीतीश कुमार और केंद्रीय सड़क परिवहन और राज्य मार्ग ने उद्घाटन किया। उम्मीद करता हूं बचपन में इसी खूबसूरती और जवानी तक इसकी बर्बादी देखने वाले पीढ़ी दोबारा अपने बच्चों को 27 साल पहले वाली शाम दिखा सकेगी। पूर्वी और पश्चिमी लेन के एक साथ खुलने के बाद इसके वही पुराने दिन लौटेंगे। जब लोग पुल की ऊंचाई से खड़े होकर गंगा को छूकर आ रही ठंडी हवा का आनंद उठा सकेगी। अच्छी बात ये भी है कि इस पुल पर दोनों तरफ पैदल चलने वालों के लिए दो लेन बनाए गए हैं। जो पहले से ज्यादा सुरक्षित है।
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